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अगली पीढ़ी के नेतृत्व के लिए राह

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com पांचवें चरण के चुनाव के बाद एक छोटे से मध्यांतर का, विचारों की सरगर्मी और चुनावी भाषणों की गहमागहमी से फुरसत का वक्त है. आधे से ज्यादा मत पड़ चुके हैं और इस समय 2019 ने हमें अपने पुराने चुनावी इतिहास से भी मुक्त कर रखा […]

मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mrinal.pande@gmail.com
पांचवें चरण के चुनाव के बाद एक छोटे से मध्यांतर का, विचारों की सरगर्मी और चुनावी भाषणों की गहमागहमी से फुरसत का वक्त है. आधे से ज्यादा मत पड़ चुके हैं और इस समय 2019 ने हमें अपने पुराने चुनावी इतिहास से भी मुक्त कर रखा है.
तमाम नये-पुराने अनुभवों के परे हम अब ऐसे चौराहे पर खड़े हैं, जहां से अगली पीढ़ी के नेतृत्व के लिए कई नयी राहें फूटती दिखने लगी हैं. सात दशकों से सफेद बालों वाले नेतृत्व को चुनता आया देश, बार-बार ‘देश खतरे में है’, ‘सब मेरे हक में वोट दो, मैं तुमको सुरक्षा दूंगा’ सुनते हुए अभी थमेगा या अगले चुनाव में, यह अस्पष्ट है. पर यह साफ है कि 2014 के उलट मतदाता सहसा तय नहीं कर पा रहा कि वह इस बार किसे चुन ले?
जो भी हो, राजनेताओं की नयी-पुरानी पीढ़ी के बीच का फर्क आंकना, नयी आहटों को करीब से महसूस करना दिलचस्प है. सोचिए, आज के जो कद्दावर बुजुर्ग नेता हैं, उनमें से ज्यादातर का जन्म आजादी के बाद हुआ. और उनमें से ज्यादातर वे हैं, जिन्होंने ‘90 के दशक में अपनी असली ऊंचाई पायी, जब नयी पीढ़ी के राहुल, अखिलेश, ज्योतिरादित्य, सचिन पायलट, जय पांडा, योगी-साध्वी, किरन रिजिजू सीनियर स्कूल में रहे होंगे और तेजस्वी यादव, आतिशी, कन्हैया कुमार और गौरव चड्ढा शायद प्री स्कूल में.
इतने युवा नेताओं का क्षितिज पर उभरना भारत के मतदाता को बदस्तूर पुरानी शैली की सुरक्षात्मक पाली खेलते जाने और उनको परे कर नयी चुनौतियों से नये नेताओं की अगुवाई में एक साहसी मुठभेड़ कर ही लेने के बीच चुनाव का नायाब मौका दे रहा है. जैसा कभी 60 के दशक के बीच लालबहादुर शास्त्री की अकाल मृत्यु के बाद मिला था.
उस समय विस्मयकारी ढंग से कांग्रेस के नंदा, चव्हाण और मोरारजी आदि वृद्ध महारथियों के बरक्स इंदिरा गांधी का उदय हुआ और ऑल इंडिया रेडियो पर अपने पहले भाषण में उन्होंने साफ कर दिया कि अगले बरस देश को कुछ तकलीफदेह तरीकों से नेहरू काल की आर्थिक नीतियों पर दोबारा सोचना होगा. नयी चुनौतियों से मुकाबले की एक अक्खड़ जिद के साथ नयी दुनिया में नाटकीयता के बिना मतदाता से, विश्व राजनय के अलमबरदारों और बाजारों से नये विचारों की अदला-बदली और नये संधिपत्र बनाना जरूरी है.
इन चुनावों में विकृत भाषा, भ्रष्ट राज-समाज और चरित्रहीन राजनीति से ऊबे बहुसंख्य वर्ग के लोगों में फिर भी बार-बार ‘देश ही नहीं, तुम भी खतरे में हो!’ की लगातार मिल रही चेतावनियां सुनकर कई यथास्थितिवादियों को शायद यह लग रहा है कि तूफान की तरह उमड़ती नयी पीढ़ी की वैचारिकता और उसके तीखे सवालों से भिड़ने की बजाय, वे क्यों न एक बार फिर मुंह में तिनका दबाकर उसी मध्यकालीन हिंदुत्व की मांद की तरफ मुड़ जायें, जिसका सपना प्रचार माध्यमों पर लगातार गलाफाड़ तरीके से दिखाया जा रहा है. यह न भूलें कि देश में हाशिये में डाले जा रहे उन अल्पसंख्यक समुदायों, किसानों और बेरोजगारों की भी भारी तादाद है, जिनके लिए इस बार नेतृत्व चयन का सवाल सीधे उनके जीने-मरने का सवाल है.
आज से सौ बरस पहले 1918 में दक्षिण अफ्रीका से लौटे मोहनदास करमचंद गांधी ने एक गुलाम और अंतर्मुखी घोंघा बनकर जी रहे राज समाज में ‘स्वराज’ के एक ठोस यथार्थवादी ब्लूप्रिंट को अहिंसा, सत्य और ईश्वर-अल्लाह की युति से कसकर जोड़ दिया था. गांधी की उलटबांसी भरी रणनीति लोगों को तब समझ में आयी, जब उसने दमनकारी ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार को अहिंसक आंदोलनकारियों पर डंडा और गोली चलाने एवं नेताओं को बार-बार जेल में डालने के लिए विश्वपटल पर शर्मसार किया. आजादी पाने के बाद गांधी की निर्मम हत्या ने दिखा दिया कि देश के एक वर्ग का नेतृत्व गांधीवादी विचारधारा से तब भी बिल्कुल सहमत नहीं थे, और आज भी सहमत नहीं हैं.
आज हमारी राजनीति अगर बिलकुल भ्रष्ट और अनैतिक नजर आती है, तो इसकी वजह यह नहीं कि उसके पास आर्थिक या भौतिक साधनों की कोई गहरी कमी है.
यह सही है कि राजनीति की पहली जरूरत होती है सत्ता और शक्ति, जिसके बगैर वह कुछ नहीं कर सकती, और जिसके लिए एक महत्वाकांक्षी राजनेता सब कुछ कर सकता है. यहां तक कि वह उन लोगों को भी बार-बार धोखा दे सकता है, जिनका नसेनी की तरह इस्तेमाल करके वह सत्ता में आया है. फिर भी भाई-भाई में फूट डालकर पायी सत्ता में विवेक की जगह धौंस और सतत अशांति कोई नहीं चाहता.
जब भी देश ऐसे दोराहे पर खड़ा होता है, तब बुद्धिजीवियों का संसार एक मानदंड बन जाता है. यह स्वाभाविक है कि हर एकाधिकारवादी नेतृत्व सबसे पहले इसी वर्ग को बदनाम कर खामोश करने की जुगत भिड़ाता है. और अखिरकार ‘सिकुलर’ सरीखे अपमानबोधक विशेषणों को पाकर भी यह वर्ग उदारवादी नजरिये की मदद से दबे-कुचले लोगों के लिए लोकतंत्र को कुछ सहने लायक बनाता है. एक सच्चा बुद्धिजीवी ‘जागते रहो!’ की खंखार लगानेवाले चौकीदार की तरह डंडा लेकर नहीं, एक रचनाकार और आलोचक की सजग दृष्टि से वह मानवीयता की रक्षा करता है.
इसी बात से आशंकित सत्ता की कोशिश रहती है कि वह बुद्धिजीवियों की गरदन पर राजनीति या पुरस्कारों या पद के लालच का जुआ धरकर उनको झुका दे. हमारे समय की पत्रकारिता (जिसे किसी ने ‘हड़बड़ी में रचे जाते साहित्य’ की संज्ञा दी है) को झुकाने में सत्ता काफी हद तक सफल नजर आती है. तानाशाहपरस्त मीडिया प्रचार का अच्छा माध्यम भले बन जाये, पर सत्ता को फर्शी सलाम करते-करते उसके पास मानवीयता की सारी पूंजी चुक जाती है और तब उसका लिखा-बोला सिरे से मूल्यहीन हो जाता है.
चुनाव की धारा हमेशा अपने साथ बहुत सारा कीचड़, सेवार और मिट्टी बहा लाती है, पर फिर भी कभी-कभी लोकतंत्र रूपी नदी का जल कुछ देर के लिए स्थिर और पारदर्शी बन जाता है. ऐसे क्षणों में जब हम मिले-जुले राज-समाज की छानबीन करते हैं, तो उस जल में हमको अपने समय की कड़कती हुई तस्वीरें नजर आती हैं : कुछ निष्कलंक आदर्श से भरी, कुछ छल-कपट और विनाशक राजहठ से छलकती हुई.
बतौर मीडिया के अंग के, इससे आंख मिलाना खुद भी गहरी तकलीफ से गुजरना है. पर इसको समझने और सच्चाई से सीधा साक्षात्कार करने के बाद ही वह विवेक पैदा होता है, जो चुनावी कोलाहल के बीच सही चुनने की राह दिखाये.

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