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महत्वपूर्ण है मर्यादा

इन दिनों हमारे देश में विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया चल रही है, जिसमें लगभग 90 करोड़ मतदाता आगामी लोकसभा के सदस्यों को निर्वाचित कर रहे हैं. प्रचार अभियान के दौरान विभिन्न दलों के नेताओं, उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं के जरिये अपनी विचारधारा, उपलब्धियों और कार्यक्रमों को अलग-अलग तरीके से जनता के बीच ले जाने […]

इन दिनों हमारे देश में विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया चल रही है, जिसमें लगभग 90 करोड़ मतदाता आगामी लोकसभा के सदस्यों को निर्वाचित कर रहे हैं. प्रचार अभियान के दौरान विभिन्न दलों के नेताओं, उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं के जरिये अपनी विचारधारा, उपलब्धियों और कार्यक्रमों को अलग-अलग तरीके से जनता के बीच ले जाने की परिपाटी रही है.

इसमें आरोप, प्रत्यारोप, आलोचना और समीक्षा की बहुत गुंजाइश रहती है. ऐसे में यह स्वाभाविक अपेक्षा रहती है कि नेता और कार्यकर्ता न सिर्फ निर्वाचन आयोग की आदर्श आचार संहिता का पालन करेंगे, बल्कि उन लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप भी आचरण करेंगे, जिन्हें मजबूत करने और आगे बढ़ाने के दावे व वादे के साथ वे चुनाव मैदान में उतरे हैं. पहले के चुनाव में भी नेताओं की जबान फिसलने के अनेक उदाहरण हैं, लेकिन इस बार लग रहा है कि कई पार्टियों के बड़े-बड़े नेताओं में एक-दूसरे को अपमानित करने की होड़ मची हुई है.

इस होड़ में भाषा की मर्यादा को किनारे रख दिया गया है. चुनाव के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष में बैठे इन्हीं नेताओं के हाथ में देश को आगे ले जाने की जिम्मेदारी और जवाबदेही होगी. तो, यह भी सोचा जाना चाहिए कि मतदाताओं, खासकर युवाओं, में हमारे लोकतंत्र की कैसी छवि बनेगी. नेताओं के विवादित और अभद्र बयानों से उनकी आपसी कटुता ही इंगित होती है.

चुनाव प्रचार के दौरान एक-दूसरे के बारे में इतना-कुछ बोल देने के बाद ये लोग देश के बड़े मसलों पर क्या कोई सहमति बना पायेंगे या संसद के भीतर और बाहर ईमानदारी से अपनी चर्चा कर पायेंगे? एक सवाल यह भी है कि अशोभनीय टिप्पणियों के शोर में असली मुद्दों के गौण हो जाने के क्या मायने हैं. जब नेता ही एक-दूसरे को लेकर नापसंदगी के जहर से भरे हुए हैं, तो गली-मुहल्लों में उनके कार्यकर्ताओं-समर्थकों के आपसी संबंध कैसे सामान्य रह पाते होंगे?

भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली में अनेक गंभीर खामियां हैं, लेकिन यह भी सच है कि सात दशकों में यह उत्तरोत्तर बेहतरी की ओर अग्रसर है. शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन, हार-जीत का सहजता से स्वीकार तथा मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी जैसे पहलुओं पर देश के हर नागरिक को गर्व है.

परंतु, अगर पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व द्वारा ही सभ्य व्यवहार और मर्यादा की सीमा का उल्लंघन किया जाता रहेगा, तो यह बेहद चिंताजनक है. ऐसे आचरण अनेक आधारों पर पहले से ही विभाजित समाज में बिखराव की एक लकीर खींच देंगे. अतीत में नेताओं की लंबी परंपरा रही है, जो भाषा और व्यवहार की उत्कृष्टता के कारण वैचारिक मतभेद के बाद भी हर पक्ष के लिए आदरणीय होते थे.

ऐसी कहानियां भी हैं, जब राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के बावजूद नेता एक-दूसरे को सहयोग करते थे तथा जीत-हार से अलग होकर मित्रता भी निभाते थे. प्रचार अभियान में देश और क्षेत्र-विशेष के अहम मसलों पर बहस होनी चाहिए तथा अपमानजनक व्यक्तिगत टिप्पणियों से परहेज किया जाना चाहिए.

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