वक्त ने किया क्या हसीं सितम!

शफक महजबीन टिप्पणीकार mahjabeenshafaq@gmail.com एक कहावत है- शायरों और कवियों के ‘कौल’ और ‘फेल’ में बहुत ही फर्क होता है, लेकिन कैफी आजमी को पढ़ते हुए यह फर्क कहीं नजर नहीं आता. कैफी ने महज ग्यारह साल की छोटी-सी उम्र में पहली गजल लिखी- ‘इतना तो जिंदगी में किसी के खलल पड़े/ हंसने से हो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 10, 2019 5:53 AM

शफक महजबीन

टिप्पणीकार

mahjabeenshafaq@gmail.com

एक कहावत है- शायरों और कवियों के ‘कौल’ और ‘फेल’ में बहुत ही फर्क होता है, लेकिन कैफी आजमी को पढ़ते हुए यह फर्क कहीं नजर नहीं आता. कैफी ने महज ग्यारह साल की छोटी-सी उम्र में पहली गजल लिखी- ‘इतना तो जिंदगी में किसी के खलल पड़े/ हंसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े.’ इस गजल को पढ़कर कैफी आजमी की शायरी के मेयार का अंदाजा लगाया जा सकता है.

कैफी आजमी का जन्म आजमगढ़ जिले के मिजवां गांव में 14 जनवरी, 1918 को एक जमींदार परिवार में हुआ था. इनका असली नाम अतहर हुसैन रिजवी था. साल 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया और 19 साल की उम्र में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये.

उस दौरान मुशायरों में भी शिरकत करते रहे अौर उनकी पहचान इंकलाबी शायर के रूप में होने लगी. साल 1947 में एक मुशायरे में इनकी मुलाकात शौकत जी से हुई. कैफी के नज्म सुनाने के अंदाज से वे बहुत मुतासिर हुईं. वह मुलाकात एक दिन शादी में बदल गयी.

कैफी सिर्फ इंकलाबी शायरी नहीं करते, बल्कि वे खुद इंकलाब की मशाल लेकर सबसे आगे चलते हैं. ‘जब भी चूम लेता हूं उन हसीन आंखों को…’ लिखते हुए कैफी की अंधेरी दुनिया में सौ चिराग रोशन होते हैं, और मर्द-औरत को बराबर मानते हुए आवाज देते हैं- ‘उठ मेरी जान! मिरे साथ ही चलना है तुझे.’ कैफी यहीं नहीं रुकते, एक औरत की शर्म को अपनी आवाज देकर वे कहते हैं- ‘तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो…’

कैफी आजमी की खासियत थी कि वे सस्ती शायरी न तो सुनते थे और न ही करते थे. वे अपने दिल में गालिब को रखते थे, लेकिन कैफी को पढ़ते हुए हम सिर्फ कैफी को ही देखते हैं.

जाहिर है यह उनकी अलहदा शायरी ही है, जो उन्हें कैफी आजमी बनाती है. साल 1944 में कैफी आजमी की पहली किताब ‘झनकार’ आयी, जहां से उनकी कताबों की तरतीब शुरू होती है और ‘आखिर-ए-शब’ (1947), ‘आवारा सज्दे’ (1973), ‘मेरी आवाज सुनो’ (1974) से होते हुए साल 1992 में ‘सरमाया’ पर जाकर यह तरतीब थम जाती है, लेकिन उनकी शायरी आगे भी जारी रहती है.

उर्दू के तरक्कीपसंद शायर कैफी आजमी की आज पुण्यतिथि है. उनकी शायरी और उनके गाने के बोल आज भी हमारे दिलों में रोमांच पैदा करते हैं. कैफी आजमी ने हिंदी फिल्मों में भी एक से बढ़कर एक गीत लिखे. ‘वक्त ने किया क्या हसीं सितम’, ‘कर चले हम फिदा जानो-तन साथियों’ जैसे गीत आज भी लोगों को बहुत पसंद आते हैं.

जब वे आजमगढ़ से मुंबई गये थे, तब उस दौर की फिल्म इंडस्ट्री में उर्दू शायरों को हिंदी फिल्मों में गीत लिखने का काम मिल जाता था और संगीतकारों को भी अच्छे गीतकार मिल जाते थे. साल 1952 में शाहिद लतीफ की फिल्म ‘बुजदिल’ से इन्होंने गीत लिखने की शुरुआत की. फिर चेतन आनंद की फिल्म ‘हकीकत’ और ‘हीर रांझा’ में गाने लिखे और बतौर गीतकार स्थापित हो गये. आज ही के दिन 10 मई, 2002 को वे दुनिया छोड़ गये.

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