बिहार की राजनीति का अगला पड़ाव
मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com लोकसभा का चुनाव परिणाम एक बार फिर से एनडीए के पक्ष में गया है. कांग्रेस फिर कोई कमाल नहीं दिखा पायी है और बाकी पार्टियों का भी कुछ ऐसा ही हाल है. जहां तक बिहार की बात है, तो परिणाम यही बताते हैं कि बिहार में एक बड़ा […]
मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
लोकसभा का चुनाव परिणाम एक बार फिर से एनडीए के पक्ष में गया है. कांग्रेस फिर कोई कमाल नहीं दिखा पायी है और बाकी पार्टियों का भी कुछ ऐसा ही हाल है. जहां तक बिहार की बात है, तो परिणाम यही बताते हैं कि बिहार में एक बड़ा बदलाव हुआ है. यानी बिहार में जो पुराना जातिगत गठबंधन चल रहा था, उससे भी अलग चीजें हुई हैं.
अब एक नया माहौल बना है, जिसमें जनता दल यूनाइटेड (जदयू) का जो अपना समर्थन आधार है अन्य पिछड़ा वर्ग और निचली जातियों का, वह अब भाजपा की ऊंची जातियों के साथ जाकर जुड़ गया है. जदयू के साथ मिलकर यह एक नये तरह का गठबंधन तैयार किया है भाजपा ने, जो बहुत ठोस गठबंधन है.
इस ठोस गठबंधन से टक्कर लेने के लिए विपक्षी ताकतों को नये तरीके से सोचना होगा कि अब सिर्फ जाति की राजनीति करने से काम नहीं चलेगा. अब इसमें तीन चीजों को एक साथ जोड़ा पड़ेगा- सामाजिक न्याय, कल्याणकारिता और विकास. राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) अगर कांग्रेस के साथ मिलकर काम करना चाहती है,
तो आरजेडी का सामाजिक न्याय, कांग्रेस की कल्याणकारिता के साथ एक नये तरह के विकास का मॉडल बनाना होगा, ताकि वह तबका जो भाजपा के साथ नहीं है, उसको जोड़ा जा सके. अब सिर्फ जातिगत गठबंधन के आधार पर जीत पाना संभव नहीं है. अगर ऐसा होता, तो सिर्फ बिहार ही नहीं, उत्तर प्रदेश के साथ ही बाकी राज्यों में भी यह राजनीति काम करती और तब परिणाम कुछ और होता.
बीते पांच सालों में बिहार में विकास के मुद्दे खूब उठाये जाते रहे हैं. नीतीश सरकार के विकास कार्यक्रमों को सराहा भी जाता रहा. सड़कें और बिजली की व्यवस्था बहुत हद तक सुधर गयी है और इसीलिए लोगों की महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ी हैं. अब वहां पलायन भी कुछ कम हुआ है.
एक अरसा पहले तक बिहार के लोगों दूसरे राज्यों में जो पलायन की विभीषिका को झेलनी पड़ी है, महाराष्ट्र से बिहार के लोगों को भगाये जाने का मुद्दा बड़ा था. लेकिन, अब पलायन को लेकर बिहार में काफी जागरूकता आयी है. बिहार के लोग अब विकास कार्यों को न सिर्फ देखना चाहते हैं, बल्कि उसमें अपनी भूमिका भी निभा रहे हैं. इस आधार पर बिहार की राजनीति में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एक नया चेहरा बना है.
अब आगे देखना होगा कि भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति से नीतीश कुमार कैसे बचते हैं और कौन हावी होता है. बतौर मुख्यमंत्री अगर नीतीश कुमार का ही विकास कार्य हावी रहता है, जैसा कि पहले के जमाने में भाजपा-जदयू के गठबंधन पर सांप्रदायिकता कभी हावी नहीं हो पाती थी, तो अगले पांच साल में बिहार का मॉडल क्या होता है, यह देखना दिलचस्प होगा.
भाजपा की एक खास रणनीति यह है कि वह राज्यवार अपना मॉडल निर्धारित करती है और उसी आधार पर चुनावों में उतरती है. राज्यवार ब्योरों को इकट्ठा करना और वहां की सामाजिक-सांस्कृति स्थितियों को समझकर ही वह चुनावी रणनीति बनाती है. सबसे खास बात यह है कि भाजपा जिसके साथ गठबंधन करती है, उसके साथ दिल से करती है, भाजपा की इस राजनीतिक खासियत को इनकार नहीं किया जा सकता है, जो ज्यादा सीटों को बटोरने का हथियार बन जाता है.
उदाहरण के लिए फिर बिहार में आये चुनाव परिणाम को ही देख लीजिये. भाजपा ने बिहार में जदयू को सीमांचल की सभी सीटें दे दी थी, जबकि आम तौर पर माना जाता है कि वहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना आसान था और भाजपा आसानी से वहां जीत ही रही थी. ऐसे में भाजपा-जदयू के बीच 17-17 सीटों पर लड़ना भाजपा का मास्टर स्ट्रोक था. मास्टर स्ट्रोक इसलिए, क्योंकि कोई भी पार्टी आज के दौर में अपनी जीतनेवाली सीटों को अपने सहयोगी पार्टी देने का रिस्क नहीं ले सकती.
इसलिए यह संभव है कि अब भाजपा बिहार में एक नये तरह का मॉडल विकसित करेगी. ऐसे में यहां विपक्षी पार्टियों के लिए कई चुनौतियां बढ़ जायेेंगी. क्योंकि, आज भी लालू प्रसाद यादव और उनके बच्चों को विकास के मसीहा के रूप में नहीं समझा जा रहा है.
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस तरह से इस बार का चुनाव प्रेसिडेंशियल इलेक्शन की तरह लड़ा गया, जिसमें हर जगह सिर्फ मोदी ही लड़ रहे थे. अगर कोई लड्डू भी बनाता दिखा, तो वह भी मोदी जी का मुखौटा पहनकर बनाता दिखा. यह एक नया ट्रेंड है भारतीय राजनीति में कि चुनाव भले कोई भी लड़ रहा हो, लेकिन लोग वोट मोदी के नाम पर ही देने लगे हैं.
इसका क्या जवाब होगा विपक्ष के पास, यह सोचना इतना आसान नहीं है. क्योंकि ब्रांडिंग के लिए मोदी जी के पास बहुत कुछ है, पैसा है, पावर है, मीडिया है, व्यक्तित्व है, वाणी है और मजबूत संगठन है. इस तरह का प्रचार तंत्र किसी और पार्टी के पास नहीं है. इसलिए आनेवाली पांच साल की राजनीति बहुत ही रचनात्मक होगी.
अब कुछ दिन में केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की नयी सरकार का गठन हो जायेगा. मेरे ख्याल से अब यह मौका आ गया है कि गांधी, नेहरू, लोहिया और आंबेडकर के साथ संवाद कर विपक्ष आपसी साझेदारी के साथ एक नया राजनीतिक मॉडल विकसित करे, जिसमें सामाजिक न्याय भी हो, सर्वधर्म समभाव भी हो और विकास भी हो.
इन सभी चीजों के एक साथ सही तरीके से मिलने पर ही संभव है कि भाजपा की राजनीतिक काट हासिल हो सके. अब यह संभव नहीं है कि नेता दिल्ली में पांच साल बैठे रहें और चुनाव के समय जाकर वोट मांग आयें और जनता उन्हें वोट कर देगी. अब उन्हें जनता के बीच जाकर पकड़ बनानी होगी.
भाजपा का जो पार्टी संगठन है, वह बहुत बड़ा और मजबूत है. भाजपा अपने एक-एक प्रत्याशी को उतारते समय तीन तरह का डेटा इकट्ठा करती है. बिहार में हो या किसी अन्य राज्य में, हर जगह भाजपा ने इसी तरह से प्रत्याशी उतारे थे. दूसरी महत्वपूर्ण बात पैसे की है.
आज के दौर में चुनाव इस कदम महंगे हो गये हैं कि कोई भी साधारण आदमी चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकता है. अब तक तो फंडिंग करनेवाले बड़े-बड़े बिजनेसमैन यह सोचते थे कि थोड़ा इस पार्टी को दे दो और थोड़ा उस पार्टी को दे दो. लेकिन, इस बार देखा गया है कि सभी फंडरों ने सबसे ज्यादा भाजपा को फंड दिया.
ऐसे में चुनाव लड़ने के लिए विपक्ष के पास पैसा कहां से आयेगा, यह सोचना होगा. इसका एक विकल्प तो आज बिहार ने ही दिया है. बिहार के बेगुसराय से चुनाव लड़े कन्हैया कुमार ने क्राउड फंडिंग के जरिये सत्तर लाख रुपये जुटा लिया था, यह एक तरीका हो सकता है. कन्हैया ने जिस तरह से जनता के बीच से सत्तर लाख रुपये का इंतजाम किया, वह एक शानदार मॉडल है.
हालांकि, कन्हैया कुमार को सफलता हासिल नहीं हो पायी, लेकिन इससे नाउम्मीदी नहीं, बल्कि एक विश्वास ही पैदा हुआ है. इस तरीके का इस्तेमाल करके विपक्षी पार्टियां या फिर कोई भी ईमानदार आदमी पैसे की कमी को खत्म कर सकता है और चुनाव लड़कर देश की राजनीति में एक नया आयाम दे सकता है. अब पूरे विपक्ष को गांधी से सीखना पड़ेगा कि जब आप कमजोर होते हैं, तो रचनात्मक काम करना बहुज जरूरी हो जाता है.