राष्ट्रपति की शक्तियों से युक्त प्रधानमंत्री
प्रो अश्वनी कुमार राजनीतिक विश्लेषक ashwanitiss@gmail.com लोकतंत्र की राष्ट्रपति प्रणाली में एक राष्ट्रपति को दी जानेवाली शक्तियों से युक्त प्रधानमंत्री मोदी की फिर दिल्ली की गद्दी पर वापसी हुई. लगता है कि नरेंद्र मोदी ने भारत की जनता को कम से कम मौजूदा वक्त के लिए एक मजबूत, आक्रामक तथा विकासात्मक हिंदुत्व अंगीकार कर लेने […]
प्रो अश्वनी कुमार
राजनीतिक विश्लेषक
ashwanitiss@gmail.com
लोकतंत्र की राष्ट्रपति प्रणाली में एक राष्ट्रपति को दी जानेवाली शक्तियों से युक्त प्रधानमंत्री मोदी की फिर दिल्ली की गद्दी पर वापसी हुई. लगता है कि नरेंद्र मोदी ने भारत की जनता को कम से कम मौजूदा वक्त के लिए एक मजबूत, आक्रामक तथा विकासात्मक हिंदुत्व अंगीकार कर लेने को बाध्य कर दिया है. उन्होंने इन संसदीय चुनावों को राष्ट्रपतीय जनमतसंग्रह में तब्दील कर देने में सफलता हासिल की. उनकी ‘स्थायी चुनावी मोड’ की कार्यशैली ने देश के 543 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों को केवल एक राष्ट्रीय निर्वाचन क्षेत्र में बदल दिया, जिससे भाजपा को आशातीत फायदे मिले.
पीएम मोदी की राष्ट्रपतीय शक्ति तीन संबद्ध स्रोतों के नतीजे हैं. पहला है हिंदू बहुसंख्यकों पर आंतरिक एवं बाह्य खतरों के गहराई से अशांतिजनक मगर राजनीतिक रूप से लाभदायक विचार को फैलाना. इसमें उन्होंने भारत में बहुवाद, विविधता एवं धर्मनिरपेक्षता के पारंपरिक विचारों को चुनौती दी.
हाल में मैं बनारस में था, जहां मैंने काशी के नये शासक के रूप में उनका उदय देखा, जहां बनारसियों ने काशी विश्वनाथ मंदिर एवं गंगा के बीच एक विस्तृत गलियारे के निर्माण हेतु इन दोनों के मध्य स्थित कई मंदिरों समेत अन्य मकानों को गिराने की उनकी योजना को कार्यरूप देने की अनुमति दी.
दूसरा, टीवी तथा सोशल मीडिया ने मोदी के राष्ट्रपतीय नेतृत्व में नयी कार्यविधि तथा प्रतीक जोड़ दिये. राजनीतिक विश्लेषक उनके संप्रेषण की शैलीगत सफलताएं अब तक भी नहीं पहचान सके हैं. जब बनारस के गोदौलिया चौक पर सत्तर से ऊपर की उम्र के दिनेश ने मुझसे यह कहा वे अपनी वृद्धावस्था का अवसाद छांटने को नियमित रूप से ‘मन की बात’ सुना करते हैं, तो मुझे अचरज नहीं हुआ. सार्वजनिक एवं निजी मीडिया द्वारा प्रसारित एकजुटता के इस बोध ने, जिसे खासकर अगड़ी जातियों, अति पिछड़ी जातियों समेत दलितों के एक हिस्से द्वारा व्यापक रूप से साझा किया जा रहा है, इन वर्गों को उभरते भाजपा की रीढ़ बना डाला है.
तीसरा, अपनी साधारण पृष्ठभूमि एवं गुजराती खरेपन से मोदी ने 2019 के इन चुनावों को ‘युद्ध के नैतिक समानार्थी’ की हैसियत दे दी. इसने विरोधी पार्टियों को न केवल सत्ता की लालच में जुटे महामिलावटी झुंड का रूप दे दिया, बल्कि उत्तर भारत में जाति की शक्ति भी काफी हद तक कुंद कर डाली.
इसलिए अचरज नहीं कि मोदी की अतिव्यक्तिवादी सियासी मुहिम ने करिश्मा कर दिखाया, जबकि कांग्रेस का एक अधिक विकेंद्रीकृत एवं अव्यक्तिवादी अभियान केवल जहां-तहां ही सफलता पा सका. खुदरा राजनीति के माहौल में नीतियों के अलग-अलग क्षेत्रों को सामने रखने की बजाय मोदी ने आम जनों और वर्गों को व्यक्तित्व तथा चरित्र के अत्यंत भावोद्वेलक ‘थोक’ सियासत से सम्मोहित कर लिया. यही वजह है कि वे अपने संपूर्ण अभियान में इस पर जोर देते रहे कि वे प्रतिदिन 20 घंटे तक काम करते हुए बहुत कम नींद से काम चलाते हैं.
‘ठंडा मतलब कोका कोला’ की विज्ञापन मुहिम की ही भांति मोदी खुद को ‘विकासपंथी राजनीति’ के सबसे बड़े ब्रांड के रूप में प्रस्तुत करने में सफल रहे. 2019 के ये चुनाव संदेश देने की इसी शक्ति के साक्षी बन गये. राजनीति की धारा बदल कर रख देनेवाली उनकी सियासी मार्केटिंग की मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश के भदोही जिले में उनके द्वारा दिये गये भाषण को लिया जा सकता है.
इस मुसलिम मतदाता बहुल जिले में उन्होंने कहा कि ‘आजादी के बाद चार तरह का शासन, पार्टियां और राजनीतिक संस्कृति सामने आयी- ‘नामपंथी’ (वंशवादी), वामपंथी, दाम और दमनपंथी तथा हमलोगों द्वारा लायी गयी विकासपंथी.’ अन्य किसी भी चीज की अपेक्षा एक ‘विकासपंथी’ की इस वैसी मजबूत छवि की मार्केटिंग ने, जो पाकिस्तान को उसके किये की सजा दे सकता है, मोदी को वापस सत्ता के सिंहासन तक पहुंचा दिया.
इसके विपरीत, कांग्रेस नीत विरोधी पार्टियां किसानों का दर्द, बेरोजगारी या नोटबंदी की मुश्किलें जैसी बिखरी छवियों के साथ एक उभरते भारत के लिए एक प्रेरणादायक उत्पाद की बजाय संघर्षात्मक सियासी मुहिम में फंसी रह गयीं. मैंने इस दौरान उत्तर प्रदेश, बिहार एवं झारखंड में व्यापक यात्राएं कीं और मुझे कांग्रेस का कहीं कोई एक भी ऐसा नामलेवा न मिला, जिसने मुझसे उसके बहु-प्रचारित ‘न्याय’ की चर्चा की हो. यूपी एवं बिहार के अधिकतर मतदाताओं ने मुझसे यही कहा कि ‘मोदी को एक और कार्यकाल मिलना ही चाहिए.’
निष्कर्ष स्वरूप, मोदी की विजय में भारत के पुनर्निर्माण के सभी संकेत उपस्थित हैं. यह ‘लोकतांत्रिक तानाशाही’ अथवा ‘नौकरशाही की निरंकुशता’ जैसी जोखिम भी प्रस्तुत करती है. यह एक व्यक्तिवादी एवं आधिपत्यवादी नेतृत्व की प्रवृत्ति भी मजबूत करती है. मोदी के साथ और उनके बाद भी भारत में भविष्य के राष्ट्रपतीय प्रधानमंत्री का पद भविष्य में ज्यादा आक्रामक रूप से केंद्रीकृत तथा प्रणाली परिवर्तक नेतृत्व का गवाह बनेगा.
(अनुवाद: विजय नंदन)