सांसद फंड छवि सुधार में बाधक

सुरेंद्र किशोरवरिष्ठ पत्रकारsurendarkishore@gmail.com प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेे राजग के नये सांसदों को सदाचरण की सलाह दी है. यह बहुत अच्छी पहल है, पर क्या सांसद क्षेत्र विकास निधि के रहते इस तरह की कोई भी नसीहत कभी कारगर हो पायेगी? दरअसल, अधिकतर सांसदों की छवि को खराब करने में इस फंड का बड़ा योगदान है. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 29, 2019 3:33 AM

सुरेंद्र किशोर
वरिष्ठ पत्रकार
surendarkishore@gmail.com

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेे राजग के नये सांसदों को सदाचरण की सलाह दी है. यह बहुत अच्छी पहल है, पर क्या सांसद क्षेत्र विकास निधि के रहते इस तरह की कोई भी नसीहत कभी कारगर हो पायेगी? दरअसल, अधिकतर सांसदों की छवि को खराब करने में इस फंड का बड़ा योगदान है. लोग जानते हैं कि सांसद फंड में कैसी लूट मची रहती है? उस फंड से निर्मित संरचनाएं कितनी खराब होती हैं?
कुछ ही सतर्क सांसद हैं, जो गुणवत्ता पर ध्यान रख पाते हैं, क्योंकि वे नजराना नहीं लेते. इस फंड के उपयोग में लगातार जारी भ्रष्टाचार का प्रतिकूल असर प्रशासन की स्वच्छता पर भी पड़ रहा है. इस फंड के अधिकतर मामलों में कमीशन और रिश्वत की दर तय है. इसलिए दुरुपयोग व बदनामी के डर से कुछ राज्यसभा सदस्य आम तौर पर अपना पूरा फंड किसी विवि या किसी प्रतिष्ठित संस्थान को दे देते हैं. वहां किसी तरह के भ्रष्टाचार की गुंजाइश बहुत ही कम होती है.
आम चर्चा है कि बिहार में तो 40 प्रतिशत राशि संबंधित सरकारी आॅफिस ही ले लेता है. इसलिए सांसद फंड से निर्मित संरचनाएं सबसे कम टिकाऊ होती हैं. सबके अपने-अपने ठेकेदार हैं. वे उनके राजनीतिक कार्यकर्ता की भी भूमिका निभाते हंै. यह फंड राजनीति में वंशवाद को आगे बढ़ाने मंंे भी काफी मददगार है. यदा-कदा राजनीतिक कार्यकर्ता तो टिकट के भी प्रत्याशी हो जाते हैं. कई सांसद ऐसा कोई ‘खतरा’ उपस्थित होने ही नहीं देते.
पटना हाइकोर्ट ने 2003 में कहा था कि सांसद-विधायक कोटे का ठेका अपने रिश्तेदारों को दिया जाता है. साल 2001 में सीएजी ने इस फंड में गड़बड़ी को पकड़ा था. चिंताजनक स्थिति यह है कि इस फंड के भ्रष्टाचार में नये-नये सेवा में आये कुछ अधिकतर आइएएस अफसर भी शामिल हो जाते हैं, यानी सांसद फंड देश के ‘स्टिल फ्रेम’ प्रशासन और उच्च स्तर की राजनीति में भ्रष्टाचार के रावण की नाभि का अमृत कंुड बन चुका है.
सांसद फंड के भ्रष्टाचार को लेकर वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में गठित प्रशासनिक सुधार आयोग ने 2011 में ही इस फंड को समाप्त करने की सिफारिश की थी. उससे पहले भी कई महत्वपूर्ण राजनीतिक व गैर-राजनीतिक हस्तियों ने इसे खत्म करने की सिफारिश की थी.यहां तक कि 2007 में लालू प्रसाद ने भी कहा था- ‘सांसद-विधायक फंड समाप्त कर देना चाहिए. सांसद-विधायक फंड की ठेकेदारी के झगड़े के कारण ही हमारी सत्ता छिन गयी.’ साल 2005 में सांसद फंड से रिश्वत लेने के आरोप में एक राज्यसभा सदस्य की सदस्यता भी जा चुकी है.
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में भाजपा के 40 सांसद उनसे इस गंभीर मुद्दे पर मिले थे. उन्होंने आग्रह किया कि आप सांसद फंड बंद कर दीजिए, क्योंकि इसके कारण भाजपा के अनेक कार्यकर्ता अब सांसद फंड के ठेकेदार बन रहे हैं. नतीजतन, उनकी आंखों में अब सेवा भाव नहीं, बल्कि वाणिज्यिक भाव देखे जा रहे हैं.
इस बात से वाजपेयी जी भी चिंतित हो उठे और विचार शुरू कर दिया. इस बीच भाजपा के ही कुछ फंड समर्थक सांसदों को इसकी भनक लग गयी. दिल्ली के तब के एक चर्चित सांसद के नेतृत्व में करीब सौ सांसद प्रधानमंत्री से मिले. उन्होंने इसकी राशि और बढ़ा देने की गुजारिश की, तो वाजपेयी जी भी उनके दबाव में आ गये.
यह राशि 2003 में एक करोड़ रुपये सालाना से दो करोड़ रुपये कर दी गयी. जब अटल सरकार इस फंड की राशि बढ़ा रही थी, तो राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मनमोहन सिंह ने उसका सख्त विरोध करते हुए कहा था- ‘यदि आप चीजों को इस तरह होने दीजियेगा, तो जनता नेताओं और लोकतंत्र में विश्वास खो देगी.’ पर खुद प्रधानमंत्री के रूप में उस जनता की परवाह किये बिना मनमोहन सिंह ने 2011 में फंड को बढ़ा कर पांच करोड़ कर दिया था.
कुछ साल पहले कांग्रेस सांसद और संसद की लोक लेखा समिति के अध्यक्ष केवी थाॅमस ने कहा था- ‘सांसद फंड पांच करोड़ से बढ़ा कर 50 करोड़ रुपये कर देने से सांसद आदर्श ग्राम योजना को कार्यान्वित करने में सुविधा होगी.’ यह अच्छी बात है कि नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में इस फंड में कोई वृद्धि नहीं की है, जबकि 50 करोड़ रुपये की मांग लगभग सर्वदलीय है.
सांसद फंड की शुरुआत भी विवादास्पद स्थिति में 1993 में हुई थी. तब पीवी नरसिंह राव की सरकार अल्पमत मेें थी. संयोग है कि जब-जब सरकारें अल्पमत में थीं या मिली-जुली थीं, तभी फंड मिला और बढ़ा. संयुक्त संसदीय समिति की अंतरिम रिपोर्ट 23 दिसंबर, 1993 को 3 बज कर 43 मिनट पर संसद में पेश की गयी.
उसमें यह सिफारिश थी कि प्रत्येक सांसद को हर साल एक करोड़ रुपये का कोष दिया जाए, ताकि उससे वे अपने क्षेत्र का विकास कर सकें. उस दिन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह विदेश में थे. सरकार ने उसी दिन 5 बज कर 50 मिनट पर उस रपट को स्वीकार कर लिया. साल 1996 में मनमोहन सिंह ने कहा भी था कि यदि मैं दिल्ली में होता, तो उस फंड को शुरू ही नहीं होने देता.
मौजूदा केंद्र सरकार अल्पमत में नहीं है. वह सांसद फंड खत्म करने का साहसिक कदम उठा सकती है. यह प्रशासनिक सुधार का हिस्सा होगा. अभी तो नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं. कोई सांसद उनके इस कदम का विरोध करने की हिम्मत भी नहीं करेगा. यदि प्रशासन व राजनीति में भ्रष्टाचार के सबसे बड़े स्रोत पर हमला करना हो, तो प्रधानमंत्री इस फंड को यथाशीघ्र समाप्त करें.

Next Article

Exit mobile version