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व्यापार युद्ध के व्यापक नतीजे

अजीत रानाडेसीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशनeditor@thebillionpress.org बीते 19 मई को जब एग्जिट पोल ने एनडीए की भारी विजय की भविष्यवाणी की, तो मुंबई के शेयर बाजार ने अपने पिछले रिकॉर्ड तोड़ते हुए लंबी छलांग लगा कर उसे अपनी सलामी दी, मगर पूरे एशिया प्रशांत क्षेत्र में हांगकांग से लेकर शंघाई, सिंगापुर, सोल और सिडनी तक ये […]

अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org

बीते 19 मई को जब एग्जिट पोल ने एनडीए की भारी विजय की भविष्यवाणी की, तो मुंबई के शेयर बाजार ने अपने पिछले रिकॉर्ड तोड़ते हुए लंबी छलांग लगा कर उसे अपनी सलामी दी, मगर पूरे एशिया प्रशांत क्षेत्र में हांगकांग से लेकर शंघाई, सिंगापुर, सोल और सिडनी तक ये बाजार गिरे हुए थे. मध्य अप्रैल से इस क्षेत्र के शेयरों ने मिल कर अपनी कीमतों में 2.6 लाख करोड़ डॉलर का नुकसान उठाया, जो भारत की राष्ट्रीय आय के बराबर है.
हालांकि अभी मुंबई का शेयर बाजार जश्न के माहौल में है, पर यह लंबे वक्त तक इस एशियाई भय से बचा नहीं रह सकता. यह और बात है कि भारत में नयी सरकार का आर्थिक एजेंडा इस क्षेत्रीय अवसाद की एक हद तक भरपाई कर सकेगा. यह व्यापक भय दरअसल अमेरिका एवं चीन के बीच चल रहा व्यापार युद्ध है, जो गुजरते वक्त के साथ संगीन ही हुआ जा रहा है.
यह सब तकरीबन एक साल पहले शुरू हुआ, जब अमेरिका ने चीनी स्टील और अमेरिका के मित्रों समेत कई देशों से आयात किये जाते एल्युमीनियम पर अचानक ही आयात शुल्क थोप दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने यह आरोप लगाया कि चीन अपने धातु उत्पादों पर सब्सिडी देकर उन्हें अमेरिकी उत्पादों से कृत्रिम सस्ता बनाये रखता है, जिससे अमेरिकी उद्योग एवं रोजगार को चोट पहुंचती है.
इसके जवाब में चीन ने भी अमेरिका से आयात किये जानेवाले सोयाबीन तथा मोटर गाड़ियों पर आयात शुल्क मढ़ दिये. विशेषज्ञों एवं विश्लेषकों को लगा कि यह नूरा कुश्ती चल रही है, जो जल्द ही खत्म हो जायेगी. पर यह उम्मीद गलत ही साबित हुई और इसकी बजाय इस युद्ध ने और जोर पकड़ लिया.
अमेरिका ने लगभग 200 अरब डॉलर के चीनी आयातों पर आयात शुल्क 10 से 25 प्रतिशत तो बढ़ा ही दिये, यही दरें 350 अरब डॉलर के अन्य आयातों पर लगाने का इरादा व्यक्त करते हुए इसकी जद में तकरीबन पूरे चीनी आयात को ही ला देने की मंशा भी जतायी है. उसने चीन पर यह आरोप भी लगाया कि चीनी संयुक्त उद्यम अमेरिकी बौद्धिक संपदा चुरा रहे हैं. पिछले वर्ष अमेरिका ने सभी प्रौद्योगिक तथा चिप निर्माता कंपनियों को चीनी बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘जेडटीई’ के साथ कारोबार करने से रोक दिया.
हाल ही में यही रोक सुप्रसिद्ध चीनी कंपनी ‘वाहवे’ (जिसे सामान्यतः ‘हुअवे’ कह दिया जाता है) के साथ लगायी गयी है. अमेरिका के कहने पर कनाडा ने इस कंपनी के मुख्य वित्तीय पदाधिकारी को गिरफ्तार कर लिया. इस पर भी लगे आरोप वैसे ही थे कि यह कंपनी अमेरिकी पेटेंट की रक्षा नहीं कर पा रही है और अपने 5जी हार्डवेयर में उसने जान-बूझ कर ऐसे फंदे लगा रखे हैं, जिन्हें पश्चिमी दुनिया अपनी सुरक्षा के लिए जोखिम मानती है.
यह सही है कि इनमें से कोई भी आरोप सिद्ध नहीं किया जा सका है. इसका एक नतीजा तो यह हुआ कि गूगल ने यह साफ कर दिया है कि वह ‘वाहवे’ के फोनों पर एंड्राॅइड ऑपरेटिंग सिस्टम को आगे अपना संबल प्रदान नहीं करेगा. उधर चीन भी अपने फोनों से अमेरिकी जीपीएस प्रणाली को हटा कर उसके समानांतर एक चीनी सैटेलाइट पोजिशनिंग सिस्टम डालने पर विचार कर रहा है. कहने का तात्पर्य यह कि इन दोनों देशों के बीच एक प्रौद्योगिकीय युद्ध पूरे उफान पर है.
पहले यह उम्मीद की जा रही थी कि दोनों देशों के अधिकारी कहीं एक जगह बैठ इन विभेदकारी मुद्दों से पार पाने की कोई राह तलाश लेंगे. पर अब यह आशा धूमिल पड़ती जा रही है. चीन पर चोट करने की इस नीति से ट्रंप की घरेलू लोकप्रियता भी बढ़ रही है.
किंतु इसे भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि चीन एक समर्थ और सक्षम देश है, जो अमेरिका पर निर्भर नहीं है. चीन को यह भी पता है कि वह बेशकीमती चिपों के निर्माण में काम आनेवाले ‘रेयर अर्थ’ पदार्थों के 95 प्रतिशत उत्पादन को नियंत्रित करता है और वह बड़ी आसानी से अमेरिकी कंपनियों को इनकी बिक्री बंद कर सकता है. चीन ने चिप डिजाइन करनेवाली अपनी खुद की कंपनी भी विकसित कर ली है, जो कुछ ही वर्षों बाद इंटेल, क्वालकॉम एवं ऐसी अन्य कंपनियों की शक्ति का मुकाबला कर सकती है.
कई वर्षों तक उसने अपने यहां गूगल, ट्विटर, जीमेल एवं ऐसी ही अन्य कंपनियों का इस्तेमाल बंद कर सोशल मीडिया सॉफ्टवेयर के ‘बैदु’ एवं ‘वीचैट’ जैसे चीनी संस्करणों का विकास सुनिश्चित कर लिया. अलीबाबा, जो वस्तुतः एक बैंक भी है, अब अमेजोन का ताकतवर प्रतिद्वंद्वी बन चुका है. इसलिए ऐसा नहीं है कि चीनी इस प्रौद्योगिकीय शीत युद्ध को चुपचाप सहन कर लेंगे. अमेरिका को मुंहतोड़ जवाब देने को चीन के हाथ में मौजूद एक अन्य हथियार यह भी है कि वह वैश्विक बांड बाजार में अमेरिकी ट्रेजरी बांड की बिक्री की बाढ़ ला दे.
चीन के पास लगभग 4 लाख करोड़ डॉलर का विदेशी विनिमय भंडार संचित है, जो ज्यादातर अमेरिकी ट्रेजरी बांड की शक्ल में है. इन बांड के एक बड़े विक्रय का नतीजा यह होगा कि उनकी कीमतें धराशायी होते हुए अमेरिकी राजकोषीय स्थिति को गंभीर हानि पहुंचा सकती हैं. हालांकि, इस नुकसान से चीन भी बचा नहीं रह सकेगा, क्योंकि इन बांडों को बेचने से आयी आय की बनिस्बत उसके हाथ की इस दौलत की कीमत में गिरावट ज्यादा तेज होगी.
इस तरह के व्यापार युद्ध में आंख के बदले आंख की नीति में कोई भी विजेता नहीं होता. अमेरिकी उपभोक्ताओं को अब अधिक कीमतें चुकानी होंगी, क्योंकि उन्हें सस्ते चीनी उत्पाद उपलब्ध नहीं हो सकेंगे. वहां के करदाताओं को भी यह नागवार गुजरेगा, क्योंकि उनके कर से किसानों, खासकर सोया किसानों को मुआवजे दिये जायेंगे. संभव है, करों में बढ़ोतरी भी हो. वालस्ट्रीट के धराशायी हो जाने के कारण निवेशक भी नुकसान झेलेंगे.
इस व्यापार युद्ध से ट्रंप के दुबारा जीतने की संभावनाएं जरूर बढ़ेंगी, पर इस अल्पावधि सियासी फायदे की कीमत बड़ी दीर्घावधि हानि से चुकानी होगी. भारत का अमेरिका के साथ खासा व्यापारिक अधिशेष (सरप्लस) है, अतः वह अमेरिकी बाजार को खोना गवारा नहीं कर सकता. इस व्यापार युद्ध में भारत किसी एक पक्ष का साथ देने को उसी तरह मजबूर हो सकता है, जिस तरह उसे ईरानी तेल के मामले में होना पड़ा. सो, ऐसे में, भारत को इस प्रौद्योगिकीय एवं व्यापार युद्ध में कई और नुकसान उठाने को तैयार रहना होगा.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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