विज्ञापनों में पापा
मुकुल श्रीवास्तव टिप्पणीकार sri.mukul@gmail.com आजकल स्मार्ट होने का जमाना है. शरीर और चीजों को तो स्मार्ट बनाया जा सकता है, लेकिन जब बात महिलाओं की हो, तब हमें सोचना पड़ता है कि क्या हम वाकई स्मार्ट समय में जी रहे हैं? तकनीक जितनी तेजी से बदल रही है, अगर उतनी ही तेजी से हमारी मानसिकता […]
मुकुल श्रीवास्तव
टिप्पणीकार
sri.mukul@gmail.com
आजकल स्मार्ट होने का जमाना है. शरीर और चीजों को तो स्मार्ट बनाया जा सकता है, लेकिन जब बात महिलाओं की हो, तब हमें सोचना पड़ता है कि क्या हम वाकई स्मार्ट समय में जी रहे हैं? तकनीक जितनी तेजी से बदल रही है, अगर उतनी ही तेजी से हमारी मानसिकता बदलती, तो दुनिया ज्यादा खुबसूरत दिखती.एक छोटा सा उदाहरण है. मेरे पास अक्सर एक एसएमएस आता है. मेरा नाम एबीसी (लडकी का नाम) है, अगर आप अकेले बोर हो रहे हो, तो मुझे इस नंबर पर फोन करो. मैं इस एसएमएस को पढ़कर डीलीट कर देता हूं.
मेरे दिमाग में ख्याल आया कि आखिर इस तरह के विज्ञापन संदेशों की जरूरत क्यों है? मजेदार बात है कि ऐसे एसएमएस लड़कियों को भी भेजे जाते हैं, कायदे से तो उनके पास लड़कों के नाम से एसएमएस भेजे जाने चाहिए और दूसरी बात यह कि क्या बातें करने के लिए लड़कियां ही फ्री बैठी रहती हैं.
हमारे समाज में लोगों के जेहन में क्या चल रहा है, यह एसएमएस उसकी बानगी भर है, क्योंकि ऐसे एसएमएस विज्ञापन हवा में नहीं बनते, बल्कि कहीं न कहीं समाज में एक सोच है कि लड़कियों से रोमांटिक बात करना पुरुषों का जन्मसिद्ध अधिकार है. पर यही हरकत अगर कोई लड़की शुरू कर दे, तो क्या होता है, यह बताने की जरूरत नहीं है. लड़कियों को जितनी तेजी से हमारा समाज कैरेक्टर सर्टिफिकेट देता है, उसकी आधी तेजी भी लड़कों के लिए आ जाये, तो देश की लड़कियों का जीवन थोड़ा बेहतर हो जाये.
जरा याद कीजिये अपने मोहल्लों के चौराहों से लेकर दुकानों तक सुबह-शाम लड़के झुंड लगाये आती-जाती लड़कियों को घूरते, फब्तियां कसते अपने स्मार्ट फोन के साथ जीवन का आनंद उठाते दिखते हैं कि नहीं दिखते.इससे एक बात तो साबित होती है कि हमारे समाज में लड़कियां नहीं लड़के ज्यादा फ्री रहते हैं, न तो उन्हें घर के सामान्य कामकाज करने होते हैं न ही उनके किसी काम पर समाज से तुरंत कैरक्टर सर्टिफिकेट मिलने का डर होता है.
अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिए लड़कियों को अकेले छोड़ दिया जाता है. यानी विज्ञापन भी जेंडर स्टीरियो टाइपिंग का शिकार हैं, क्योंकि उनको बनानेवाले भी इसी समाज के लोग हैं और उनकी मानसिकता भी वैसी बन गयी है. एसएमएस विज्ञापन से आगे टीवी विज्ञापनों पर चलें, तो वहां भी कहानी कुछ ऐसी ही है, जहां लैंगिक असमानता साफ साफ दिखती है.
आप भी सोच रहे होंगे कि बात तो स्मार्ट गैजेट से शुरू हुई थी, पर मामला इतना गंभीर हो गया. जी हां, स्मार्ट तकनीक भी स्मार्ट सोच के साथ अच्छी लगती है. नहीं तो फिर ‘बंदर के हाथ में उस्तरा’ जैसी बात हो जायेगी. जरा सोचिये, कैसा हो जब किसी सूप के विज्ञापन में पापा भूख शांत करायें या डायपर में भी पापा ही बच्चे को अच्छी नींद सुलायें. हृदय को स्वस्थ रखनेवाले विज्ञापन में पत्नी की सेहत का ख्याल पति भी करे. बाकी सभी विज्ञापनों में भी महिलाओं के साथ-साथ पुरुष भी कदम से कदम मिलाकर चलते दिखें!