वंशवाद समाप्त नहीं हुआ है
नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com एक कार्टून इन दिनों सोशल साइटों में वायरल हो रहा है. राहुल गांधी अपनी मां सोनिया गांधी की गोद में बैठकर अशोक गहलोत, पी चिदंबरम और कमलनाथ की ओर अंगुली उठाकर कह रहे हैं कि इन्होंने अपने बेटों को टिकट देने की जिद की. इस्तीफे तक की धमकी दी. बताते […]
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
एक कार्टून इन दिनों सोशल साइटों में वायरल हो रहा है. राहुल गांधी अपनी मां सोनिया गांधी की गोद में बैठकर अशोक गहलोत, पी चिदंबरम और कमलनाथ की ओर अंगुली उठाकर कह रहे हैं कि इन्होंने अपने बेटों को टिकट देने की जिद की. इस्तीफे तक की धमकी दी. बताते हैं कि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल ने क्षोभ के साथ यह बात कही थी. कार्टूनिस्ट का तंज स्वाभाविक है कि राजनीति में वंशवाद के सबसे बड़े प्रतीक स्वयं राहुल गांधी हैं.
बहरहाल, राहुल अमेठी की अपनी पारिवारिक सीट से चुनाव हार गये. चुनाव हारनेवालों में कुछ बड़े चर्चित परिवारवादी भी हैं. पत्नी, बेटों और बेटी को राजनीति में स्थापित करनेवाले लालू यादव के परिवार का इस बार एक भी सदस्य नहीं जीता. बहुचर्चित परिवारवादी मुलायम सिंह यादव और उनके बड़े बेटे अखिलेश चुनाव जीत गये, लेकिन उनकी बहू और भतीजे हार गये. अजित सिंह और उनके बेटे जयंत हार गये. कर्नाटक में देवगौड़ा स्वयं और उनके परिवारीजन खेत रहे. राजनीति में स्थापित एक और बड़े परिवार के उत्तराधिकारी ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इस बार अपनी सीट नहीं बचा पाये.
परिवारवादी राजनीति की पराजय के ऐसे कुछ अन्य उदाहरणों के आधार पर कहा जा रहा है कि इस बार की मोदी लहर ने राजनीति से वंशवाद का सफाया कर दिया. क्या वास्तव में ऐसा हुआ है?
पंजाब में प्रकाश सिंह बादल का और तमिलनाडु में करुणानिधि का परिवार जीत गया. मोदी लहर में भी कमलनाथ छिंदवाड़ा की अपनी पुरानी सीट से बेटे को जिता ले गये. सोनिया गांधी जीतीं और अमेठी से हारनेवाले उनके बेटे राहुल वायनाड सीट से लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे. धमाके से जीतनवाले आंध्र के जगनमोहन रेड्डी और उड़ीसा के नवीन पटनायक लोकप्रिय नेताओं के वंशज ही हैं. सूची लंबी है.
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में तीन दिन पहले प्रकाशित एक शोध-रपट के अनुसार, सत्रहवीं लोकसभा में पहुंचे सांसदों में 30 प्रतिशत राजनीतिक परिवारों के हैं. यह नया कीर्तिमान है. साल 2004 से 2014 तक यह करीब 25 फीसदी था. राजनीतिक दलों में सर्वाधिक वंशवादी कांग्रेस ही है, जिसके इस बार 31 प्रतिशत उम्मीदवार राजनीतिक परिवारों के थे. आश्चर्य है कि कांग्रेस पर परिवारवाद का तीखा आरोप लगानेवाली भाजपा स्वयं इस मामले में कांग्रेस का मुकाबला करने की तरफ बढ़ रही है. इस बार इसके 22 फीसदी उम्मीदवार परिवारवादी थे. उसका यह आंकड़ा हर चुनाव में बढ़ रहा है.
राजनीति में परिवारवाद पनपने के कारण हैं. आजादी के बाद राजे-रजवाड़ों ने चुनावी राजनीति में शामिल होकर अपनी सत्ता बचाने की कोशिश की. उनकी लोकप्रियता और भारतीय समाज की संरचना ने उन्हें राजनीति में स्थापित कर दिया. उनके वंश राजनीति में फले-फूले. राजनीतिक दलों ने उनके जीतने की बेहतर संभावना के कारण उन्हें आगे बढ़ाया. आजादी के इतने वर्ष बाद भी रजवाड़ों की संततियां राजनीति में सक्रिय हैं.
कांग्रेस थोड़ा अलग तरह का उदाहरण है. नेहरू पर सीधे यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने अपनी बेटी को कांग्रेस का उत्तराधिकार सौंपा. इंदिरा गांधी पार्टी के भीतर ‘ओल्ड गार्ड’ से लड़कर कांग्रेस पर काबिज हुईं. हां, खुद उन्होंने कांग्रेस को इतना बौना बना दिया कि बेटे संजय की मृत्यु के बाद अपना उत्तराधिकारी तैयार करने के लिए वे बड़े बेटे राजीव को उनकी अनिच्छा और बहू सोनिया के विरोध के बावजूद विमान के कॉकपिट से उठा लायीं. वह शायद सबसे बढ़िया अवसर था, जब कांग्रेस अपना गैर-नेहरू-गांधी उत्तराधिकारी चुन सकती थी. लेकिन तब तक कांग्रेस में इतना ताब ही नहीं बचा था. अब तो कांग्रेस इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती.
परिवारवाद का एक नया संस्करण मंडल-राजनीति से उभरे मध्य जातियों के ताकतवर क्षेत्रीय क्षत्रपों ने स्थापित किया. विशेष रूप से मुलायम और लालू यादव ने अपनी पार्टियों को प्राइवेट कंपनियों की तरह चलाया. कर्नाटक और तमिलनाडु में भी ऐसा ही दौर आया. ओडिशा, पंजाब, हरियाणा, यानी लगभग सभी राज्यों में बड़े नेताओं के परिवारीजन पार्टी में ऊपर से थोपे जाते रहे. सिर्फ वाम दल इसके अपवाद हैं.
जेल में बंद सजायाफ्ता बाहुबली कानूनन चुनाव न लड़ पाने पर अपनी पत्नियों को मैदान में उतार देते हैं. चारा घोटाले में अदालत में आरोपित किये जाने के बाद 1997 में लालू यादव ने रातोंरात मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी पर पत्नी राबड़ी देवी को बैठा दिया था. कुछ राजनीतिक परिवारों में उत्तराधिकार को लेकर लड़ाइयां भी हुईं. शिव सेना, द्रमुक, सपा और राजद में ऐसे झगड़े हो रहे हैं, जो पारिवारिक संपत्ति के लिए होनेवाले संघर्षों की याद दिलाते हैं.
लोकतंत्र में परिवारवाद की जगह नहीं होनी चाहिए. पार्टी संगठन के चुनाव लोकतांत्रिक तरीकों से हों, तो परिवारवाद का बोलबाला कम होगा और सक्षम नेतृत्व उभरेगा. पार्टियों पर परिवारवाद के कब्जे ने अनेक प्रतिभाशाली नेताओं को दबाया है. ऐसी पार्टियों में कोई ‘बाहरी’ सक्षम नेता संगठन के चुनाव लड़ने की कल्पना नहीं कर सकता. अगर कोई पार्टी अपने भीतर ही लोकतंत्र का सम्मान नहीं करती, तो देश की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति उसके आदर पर स्वाभाविक ही संदेह होगा.
कांग्रेस का नेतृत्व दशकों से नेहरू-गांधी परिवार के हाथों में है. भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अभी परिवारवादी नहीं हुआ है, लेकिन उसके कई नेता अपने बच्चों को आगे बढ़ा रहे हैं. दोनों ही राष्ट्रीय दल परिवारवादियों को चुनाव लड़ाने में आगे हैं. ऊपर जिस रिपोर्ट का उल्लेख हुआ है, उसके निष्कर्षों ने इस भ्रांति को तोड़ा है कि क्षेत्रीय दल ही राजनीति में परिवार को बढ़ावा देने में आगे हैं. जबकि सच्चाई यह है कि राष्ट्रीय दल अग्रणी हैं. इस बार क्षेत्रीय पार्टियों के 12 प्रतिशत उम्मीदवार परिवारवादी थे, जबकि राष्ट्रीय पार्टियों का यह आंकड़ा 27 फीसदी है.
तथ्य यह भी है कि राजनीतिक परिवारों के वंशजों का चुनाव जीतने का औसत सामान्य प्रत्याशियों के विजयी होने के औसत से अधिक है. उसी रिपोर्ट के अनुसार, इस बार चुनाव में 2189 उम्मीदवारों में 389 यानी 18 प्रतिशत राजनीतिक परिवारों के थे, जबकि जीतकर लोकसभा पहुंचनेवालों का प्रतिशत 30 (542 में 162) है. यह तथ्य स्पष्ट करता है कि सभी दल वंशवाद का पोषण क्यों करते हैं और क्यों इसकी निंदा करनेवाली भाजपा भी इसी राह पर है. अर्थात, यह कहना सही नहीं होगा कि भारतीय राजनीति में वंशवाद समाप्ति की ओर है.