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शहर जब गांव आता है

मिथिलेश राय साहित्यकार mithileshray82@gmail.com गांव शहर रोज जाता है. उसकी असंख्य जरूरतें हैं. वहां वह जरूरत की चीजें लेता है और शाम ढले लौट आता है. कभी खास जरूरत होती है, तो वहां वह रह भी लेता है. वहां रहते हुए वह असहज फील करने लगता है. जब भी कहीं सड़क को पार करने की […]

मिथिलेश राय
साहित्यकार
mithileshray82@gmail.com
गांव शहर रोज जाता है. उसकी असंख्य जरूरतें हैं. वहां वह जरूरत की चीजें लेता है और शाम ढले लौट आता है. कभी खास जरूरत होती है, तो वहां वह रह भी लेता है. वहां रहते हुए वह असहज फील करने लगता है. जब भी कहीं सड़क को पार करने की नौबत आती है, वह भयभीत हो जाता है.
लोगों को सड़क पार करते हुए देखता रहता है. फिर अपने अंदर की बहादुरी और चालाकी के भाव को जागृत करते हुए दौड़ लगा देता है. जब भी वह सड़क को पार कर लेता है, उसे लगता है कि उसकी जान में जान लौट आयी है!
गांव शहर की चीजों को हैरत से निहारते हुए समय गुजरता है. वह कहीं ठिठक कर ऊंची बिल्डिंग को निहारने लगता है. एस्कलेटर पर पांव रखने से पहले उसे निहारता है.
अगर शहर में उसे कहीं पेड़ दिख जाता है, तो वह उसे भी देखता रहता है. वह उस पेड़ पर कोई चिड़िया या घोंसले को ढूंढता है. लेकिन, उसे यह सब नहीं मिलता है. वह सोचता है कि शहर में चिड़िया कहां रहती होंगी? अगर शहर में चिड़िया नहीं रहती है तो रोज सवेरे इसकी नींद किस प्यारी आवाज से खुलती होंगी!
वह देर रात तक शहर को जगे हुए देखता है. वहां वह पूर्णिमा के पूरे उगे हुए चांद को देखता है और सोचता है कि रात की इतनी भक्क रोशनी में चांद की कितनी रोशनी है इसके पास! लेकिन शहर को गांव की बहुत कम जरूरत होती है.
जब उसका मन बहुत उकता जाता है या बहुत जरूरी काम निकल आता है, तभी वह गांव जाता है. गांव में वह देखकर हैरत करता है कि अब भी जंगल का दृश्य उपस्थित कर रहा है. वह आंगन, दरवाजे, सड़कों के किनारे-किनारे, बीच खेत में, खेत के मेड़ पर, तरह-तरह के पेड़-पौधों को देखता है. सवेरे कानों में तरह-तरह की चिड़िया की आवाज जाती है.
वह मगन होकर आवाजों को सुनने लगता है. उसके मन में यह विचार आता है कि उन पंछियों को वह देखे. वह बाहर निकलता है और आवाज की तरफ अपनी निगाह करता है. तभी पूरब की ओर से आ रही हवा उसके नथुने से टकराती है और उसका अंतस शीतल हो जाता है. चिड़ियों के मधुर गीत और शुद्ध हवा का स्पर्श, वह विभोर हो जाता है.
उसकी नजर गाछ में पके आम पर जाती है. वह ठिठक जाता है. फल उसके हाथ में आता है और जीभ पर चढ़ता है. आह! अद्भुत स्वाद. वह मेड़ पर चलते हुए जिधर भी निहारता है, उसे फसल अपनी हरियाली के साथ झूमती हुई नजर आती है.
वह नदी के किनारे जाता है और दूब पर बैठ कर पानी का बहते जाना निहारता है. शाम ढले पीपल और बरगद के वृक्षों के पास वह ढोलक बजते देखता है तो खुद को रोक नहीं पाता है और वहां जाकर बैठ जाता है. वह भीड़ को ताली से ताल मिलाते हुए देखता है और खुद भी झूमते हुए ऐसा करने में मगन हो जाता है. वह चांद की पूरी रोशनी को जमीन पर उतरते देखता है और आनंदित होते रहता है.

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