दुर्लभ संस्कृतिकर्मियों में से थे नाटककार और अभिनेता गिरीश कर्नाड

अमितेश रंगकर्म समीक्षक amitesh0@gmail.com गिरीश कर्नाड 19 मई, 1938 – 10 जून, 2019 गिरीश कर्नाड ने जब अपना पहला नाटक ययाति (1961) लिखा, तो आयु मात्र 23 साल की थी और तुगलक (1964) के प्रकाशन के साथ ही वे राष्ट्रीय रंगमंच के केंद्र में आ गये थे. प्रकाशन के साथ ही तुगलक का कन्नड़, मराठी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 11, 2019 6:36 AM
अमितेश
रंगकर्म समीक्षक
amitesh0@gmail.com
गिरीश कर्नाड
19 मई, 1938 – 10 जून, 2019
गिरीश कर्नाड ने जब अपना पहला नाटक ययाति (1961) लिखा, तो आयु मात्र 23 साल की थी और तुगलक (1964) के प्रकाशन के साथ ही वे राष्ट्रीय रंगमंच के केंद्र में आ गये थे. प्रकाशन के साथ ही तुगलक का कन्नड़, मराठी और हिंदी में मंचन हुआ. इब्राहिम अल्काजी ने 1967 में इसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लिए प्रस्तुत किया.
सुरेश अवस्थी, पुरुषोत्तम लक्षमण देशपांडे और इब्राहिम अल्काजी के संपादन में ‘आज के रंग नाटक’ (1973) के नाम से चार नाटकों का प्रकाशन हुआ, जिसमें मोहन राकेश, विजय तेंदुलकर, बादल सरकार के साथ गिरीश कर्नाड के नाटकों को भी रखा गया. यह भारतीय नाटककारों का एक चतुर्भुज था, जिसकी आखिरी भुजा का देहवसान हो गया. आजादी के बाद भारतीय रंगमंच में जिस राष्ट्रीय रंगमंच की खोज हो रही थी, उसे इन नाटकों ने एक रास्ता सुझाया था.
सत्तर के दशक में जब भारतीय रंगमंच को लगा कि पाश्चात्य रंगमंच से प्रभावित नाट्य युक्तियों में कुछ अधिक बंधन हैं, तो खुलेपन और भारतीय रंग मुहावरे की तलाश नाटककारों को परंपराशील रंगमंच की युक्तियों तक ले गयीं, उस समय भी गिरीश कर्नाड ने हयवदन (1971) लिखकर रास्ता दिखाया, जिसमें कर्नाटक की शैली यक्षगान और भागवत मेला की युक्तियों का समावेश था, इसके बाद ‘थियेटर ऑफ रूट्स’ के नारे ने जोर पकड़ा.
नाटककार के रूप में गिरीश कर्नाड लगभग छह दशकों तक सक्रिय रहे. महाभारत की कथाओं पर आधारित नाटक ‘ययाति’ और ‘अग्निवर्षा’ लिखा. इतिहास के माध्यम से भी वो वर्तमान को टटोलते हैं. ‘तुगलक’ में एक सुल्तान की अपनी महत्त्वाकांक्षा का द्वंद्व है, जिसका असर उसकी रियाया पर होता है. ‘रक्त कल्याण’ में बसवण्णा के चरित्र के माध्यम से धर्म और धार्मिक समुदाय के भीतर चल रहे संघर्ष का विवरण है.
उनका अंतिम प्रकाशित नाटक ‘राक्षसा तंगाड़ी’ भी तालीकोटा के युद्ध पर आधारित है. सीधे-सीधे समसामयिक जीवन को भी विषय बनाते हैं. ‘बेंडा कालू ऑन टोस्ट’ नाटक महानगर के रूप में पसरते शहरों की गाथा है, जिसमें कई तरह की संस्कृतियां शहर के अलग-अलग छोरों पर रहती हैं, जिसके आपसी मेल से शहर बनता है, लेकिन ये एक-दूसरे से अनजान बने रहते हैं.
कॉस्मोपोलिटन का दावा करनेवाले शहरों की संकीर्णता कैसी है, इसको सूक्ष्मता से नाटक में बुना गया है. स्त्री उनके नाट्य लेखन के केंद्र में रही है, चाहे स्त्री किरदार हों ‘अग्निवर्षा’ की विशाखा जैसी या स्त्री किरदार को आधार बनाकर लिखा गया नाटक ‘बिखरे बिंब’ हो, जो एक औसत लेखिका के छल के आधार पर बड़ा लेखक बनने की महत्त्वाकांक्षा की कहानी है. स्त्री की यौनिकता और देह पर उसके अधिकार पर उन्होंने ‘नागमंडल’ जैसा नाटक लिखा.
अपने नाटकों में रंगभाषा को भी निरंतर अद्यतन बनाया है. कर्नाड ने अपने नाटकों में ऐसे चरित्रों की रचना की है, जो अपने भीतर के द्वंद्व और बाहर की दुनिया के असामंजस्य के कारण उपजे संघर्ष से जूझते रहते हैं. जाति, धर्म और संस्कृतियों के भीतर के वर्चस्व, शोषित तबके के शोषण का कारण और इन सबमें स्त्री के अपने प्रश्न उनके नाटकों में विद्यमान हैं.
साल 1970 में ही गिरीश कर्नाड ने यूआर अनंतमूर्ति के उपन्यास पर आधारित ‘संस्कार’ फिल्म में प्राणेशाचार्य की मुख्य भूमिका निभायी. ‘वंशवृक्ष’ का निर्देशन किया और इसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी मिला.
अभिनय भी करते रहे, अभिनेता के तौर पर एक तरफ ‘निशांत’ जैसे समानांतर फिल्मों में काम किया, तो ‘एक था टाइगर’ जैसी मुख्यधारा के सिनेमा में भी. फिल्म में नाक में ड्रिप लगाये रॉ के मुखिया के तौर पर वे दिखते हैं.नागेश कुकूनर की फिल्म ‘इकबाल’ में कोच की उनकी भूमिका भी अविस्मरणीय है.
गिरीश कर्नाड का जीवन इतना बहुमुखी है, जिसके एक सिरे को पकड़ो, तो दूसरा हाथ से छूटने लग जाता है. भारतीय ज्ञानपीठ, संगीत नाटक अकादमी, पद्म भूषण, साहित्य अकादमी, कालिदास सम्मान, वंशवृक्ष के लिए श्रेष्ठ निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार, गोधुली के लिए श्रेष्ठ पटकथा का फिल्मफेयर अवाॅर्ड, ये कुछ ही पुरस्कार हैं, जबकि सूची बहुत लंबी है.
गिरीश कर्नाड का जन्म 1938 में माथेरान, महाराष्ट्र में हुआ. वे रोड्स स्काॅलर भी थे, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी पढ़ने भी गये और ऑक्सफाेर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस में नौकरी भी की. साल 1970 में भाभा फेलोशिप मिली और उसके बाद नाटक, रंगमंच और सिनेमा की दुनिया में रम गये.
गिरीश उन दुर्लभ संस्कृतिकर्मियों में से एक थे, जिनके सरोकार की अभिव्यक्ति केवल उनकी रचनाओं में ही नहीं रचना से बाहर सार्वजनिक जीवन में भी होती रही, इसमें उम्र और बीमारी को भी उन्होंने दूर धकेल दिया और सड़क पर उतरे. गौरी लंकेश की हत्या के बाद उनके हाथों की ‘मी टू अर्बन नक्सल’ की तख्ती कौंधती रहती है. गिरीश नेहरूवियन आधुनिकता की दौर की उपज थे. लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उनके जीवन के मूल्य थे.
अंग्रेजी के विद्वान थे, कन्नड़ में लिखते थे, अपने नाटकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया और हिंदी समेत अनेक भाषाओं में काम किया. कर्नाड कला के विभिन्न माध्यमों से सहज तालमेल स्थापित करते हैं. उनके शिल्प में राजनीति का गहरा समावेश है, जिसका स्वर अक्सर प्रतिरोध का है.

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