चुनाव नतीजे और नीतीश कुमार फैक्टर
केसी त्यागी राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू kctyagimprs@gmail.com लोकसभा चुनावों में बिहार के नतीजों ने सबको आश्चर्यचकित किया है. कई धारणाएं, पूर्वानुमान तथा राजनीतिक पंडितों के आंकड़े एक बार पुन: गलत साबित हुए हैं. सबसे अधिक चौंकानेवाली दो घटनाएं हैं. पहली, जदयू और इसके नेता नीतीश कुमार की बढ़ती स्वीकार्यता और दूसरी आरजेडी में उत्तराधिकार का असफल […]
केसी त्यागी
राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू
kctyagimprs@gmail.com
लोकसभा चुनावों में बिहार के नतीजों ने सबको आश्चर्यचकित किया है. कई धारणाएं, पूर्वानुमान तथा राजनीतिक पंडितों के आंकड़े एक बार पुन: गलत साबित हुए हैं. सबसे अधिक चौंकानेवाली दो घटनाएं हैं.
पहली, जदयू और इसके नेता नीतीश कुमार की बढ़ती स्वीकार्यता और दूसरी आरजेडी में उत्तराधिकार का असफल प्रयोग और परंपरागत दकियानूसी राजनीति का खात्मा. कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार से जातीय राजनीति समाप्त हो चुकी है.
बिहार और देश जातिविहीन समाज की तरफ बढ़ रहा है. ऐसे चिंतक हजारों साल की सामाजिक विषमता, उससे पैदा हुई गैरबराबरी आदि को नजरअंदाज करने की गलती कर रहे हैं. नि:संदेह यह चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति पद्धति की तर्ज पर हुआ है, जिसके केंद्र बिंदुु सिर्फ नरेंंद्र मोदी थे तथा अन्य विषय गौण रह गये.
लेकिन ऐसा माननेवालों की भी लंबी तादाद है कि बिहार से केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में दुर्बल वर्गों की अनदेखी की गयी है. इन वंचित समूह के लोगों ने लंबी कतारें बनाकर एनडीए को जिताने तथा नरेंद्र मोदी को शिखर पर पहुंचाने में महती भूमिका निभायी है.
मंडल कमीशन के लागू होने के बाद 50 फीसदी से अधिक आबादी रोमांचित और आंदोलित हुई थी कि उनके तबके को शिक्षा व रोजगार के अवसर में अानुपातिक हिस्सेदारी मिलेगी.
दक्षिण के तमिलनाडु की भूमि से समानता का यह आंदोलन लखनऊ और पटना में फलने-फूलने लगा. शुरू के दिनों में मंडल के समर्थक नेताओं और पार्टियों के प्रति चुंबकीय आकर्षण था. आज जब ये दल धराशायी हो चुके हैं, तो आत्मचिंतन की बजाय चुनाव आयोग और इवीएम को निशाना बना रहे हैं.
अच्छा होता कि इन दलों के परिवारों के प्रमुख, परिवार व पार्टी के साथ बैठकर गंभीर चिंतन करते. इन दलों का उदय कांग्रेस पार्टी की परिवारवादी, जातीय वर्चस्ववादी और भ्रष्टाचार में डूबी राजनीति के विकल्प के रूप में हुआ था.
इन उभरते हुए नेतृत्व व समूहों को डॉ लोहिया ने चेताया भी था कि जब ये व्यक्ति या समूह राजकाज के शिखर नेतृत्व पर होंगे और प्रशासन का संचालन करेंगे, तो इनका आचरण पूर्ववर्ती शासकों से बेहतर व भिन्न होना चाहिए. यूपी-बिहार की समता व समानता की पक्षधर पार्टियां अपने कुशासन की वजह से आज लुप्त हो गयीं.
कटु आलोचना, विरोधियों के तीखे आरोपों के बावजूद इस आंदोलन का एक टुकड़ा जदयू न सिर्फ सलामत रहा, बल्कि उसका वोट प्रतिशत प्रत्येक चुनाव के बाद बढ़ता चला गया. आज यह मत प्रतिशत 22 फीसदी हो गया है.
नि:संदेह निष्ठावान, ऊर्जावान कार्यकर्ताओं की फौज भी निरंतर सक्रिय भूमिका निभाती रही परंतु सबसे बड़ा कारण इस दल के मुखिया नीतीश कुमार का स्वावलंबी आचरण, परिवारवाद व धन-अर्जन करने की तृष्णा से कोसों की दूरी तथा जाति की बजाय वर्ग व समूह की राजनीति को केंद्रित करना भी इन्हें प्रासंगिक बनाये रखता है.
साल 2014 जदयू की चुनावी प्रदर्शन का खराब दौर रहा, जब पार्टी को केवल दो सीटें मिलीं. लेकिन उस समय भी इसे 16 फीसदी मत मिले थे. साल 2010, 2015 और अब 2019 में इसे क्रमश: 23, 17 तथा 22 फीसदी वोट प्राप्त हुए. इन सभी चुनावों में नीतीश कुमार का सुशासन व विकास निरंतर सरकार बनाने में सर्वाधिक अहम रहा. जनादेश का निरादर और अनदेखी ने आज आरजेडी, सपा, बसपा को कैसे मटियामेट कर दिया है.
चारा घोटाला कांड में कानूनी प्रक्रिया के तहत अदालत से दोषी पाये जाने पर लालू जी ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपनी धर्मपत्नी को चुना, जिनका राजनीतिक अनुभव शून्य था. नीतीश कुमार ने समाज के आखिरी पायदान पर खड़ी मुसहर जाति के नेता मांझी को चुना. किन्ही राजनीतिक कारणों से मांझी अपनी अवसरवादिता के कारण नीतीश कुमार से दूर हो गये, लेकिन अपनी जाति का विश्वास नीतीश कुमार के पास छोड़ गये.
नि:संदेह यह मंडल से आगे की राजनीति का दौर है, जिसे मंडल प्लस के रूप में रेखांकित किया जाता है. बिहार में इसका जीता-जागता उदाहरण है, जहां अति पिछड़ा, महिलाओं, महादलितों और अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों के लिए दर्जनों योजनाएं चलायी गयी हैं.
बिहार में पुरुषों से अधिक महिलाओं का मत प्रतिशत रहा. मद्यनिषेध विरोधियों के लिए यह सबक भी है. कैसे सामाजिक कुरीतियों के कारण सामान्य परिवार गृह क्लेश व अन्य उत्पीड़न का शिकार हो रही थी, किसी से छिपा नहीं है. इन गूंगे-बहरे मतदाताओं के स्वर रोजमर्रा के मुद्दे नहीं बनते, लेकिन प्रचंड गर्मी में लंबी कतारें लगाकर मतदान में इनके स्वर मुखर जरूर हो जाते हैं.
जब समूची राजनीतिक पार्टियां वोटों के झुंडों को संगठित करने में लगी रहती हैं, तब बिहार में लीक से हटकर सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध हल्ला बोल किया गया है. बाल विवाह, मद्यनिषेध, वृद्ध सम्मान योजना समेत कई सामाजिक पहलें सिर्फ बिहार में ही हुई हैं.
लोकसभा चुनाव में जदयू प्रमुख ने 171 जनसभाएं कीं. महागठबंधन के नेता एक दूसरे को जब नीचा दिखाने में लगे हुए थे, तब एनडीए की तिकड़ी मोदी, पासवान व नीतीश कुमार एक दिन में तीन से चार सभाएं कर अपनी जनकल्याणकारी योजनाओं का ब्योरा दे रहे थे. एनडीए में असहयोग की कोई शिकायत नहीं थी, जबकि नेता प्रतिपक्ष के कुनबे में विस्फोट की खबरें सुर्खियों में रहा करती थीं.
सवर्ण आरक्षण को लेकर भी नये-पुराने नेतृत्व में भयंकर विवाद थे, जिसकी चपेट में कई दिग्गज उम्मीदवार भी स्वाहा हो गये. राहुल गांधी की सभा में तेजस्वी यादव की अनुपस्थिति की चर्चा आज भी है. कद्दावर नेता शकील अहमद गठबंधन के विरुद्ध उम्मीदवार बने तथा नेत्री रंजीता रंजन को हराने में राजद के रणबांकुरे अतिरिक्त सक्रिय हो गये.
इससे इतर मोदीजी की सभा से पहले स्वयं नीतीश कुमार तैयारियों का आकलन किया करते थे. ऐसे तमाम संयुक्त प्रयासों ने एनडीए को समरस बनाने का काम किया. केंद्र व राज्य सरकार के विकास कार्यों ने भी जीत में बड़ी भूमिका अदा की है. साल 2020 का चुनाव नजदीक आ गया है और मौजूदा आंकड़ों के अनुसार, एनडीए की लगभग 224 विधानसभा सीटों पर बढ़त है. यह बढ़त टूटे, बिखरे और आभाहीन तथा हाशिये पर जा चुके महागठबंधन के लिए काफी है.