मनमोहन सिंह की मौन विदाई
आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का राज्यसभा का कार्यकाल बजट सत्र से ठीक पहले 14 जून को समाप्त हो गया. वह 28 साल तक राज्यसभा के सदस्य रहे. उनकी विदाई को लेकर कोई आयोजन नहीं हुआ. मीडिया में भी एक छोटी-सी खबर आयी. किसी हिंदी टीवी चैनल […]
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का राज्यसभा का कार्यकाल बजट सत्र से ठीक पहले 14 जून को समाप्त हो गया. वह 28 साल तक राज्यसभा के सदस्य रहे. उनकी विदाई को लेकर कोई आयोजन नहीं हुआ.
मीडिया में भी एक छोटी-सी खबर आयी. किसी हिंदी टीवी चैनल ने उनके कार्यकाल का लेखा-जोखा पेश नहीं किया. कोई शख्स तीन दशकों तक राज्यसभा का सदस्य, 10 साल तक प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता और देश का वित्त मंत्री रहा हो, जो देश की अर्थव्यवस्था को नेहरूवादी मॉडल से उदारीकरण की दिशा में ले गया हो, उसके बारे में कोई विमर्श तक न होना आश्चर्यजनक है. मनमोहन सिंह 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री रहे. वह 1998 से 2004 तक विपक्ष के नेता थे.
उन्होंने 1991 में नरसिम्हा राव सरकार में सीधे वित्त मंत्री के रूप में राजनीति के मैदान में कदम रखा. उनके वित्त मंत्री बनने की कहानी दिलचस्प है. विनय सीतापति अपनी किताब हाऊ पीवी नरसिम्हा राव ट्रांसफॉर्म्ड इंडिया में लिखते हैं कि 1991 में राव रिटायरमेंट मोड में चले गये थे, लेकिन 21 मई, 1991 को श्रीपेरंबदूर में राजीव गांधी की हत्या हो गयी.
कुछ दिनों बाद सोनिया गांधी ने इंदिरा गांधी के पूर्व प्रधान सचिव पीएन हक्सर को बुलाया और पूछा कि पीएम पद के लिए कौन सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो सकता है? हक्सर ने तत्कालीन उपराष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा का नाम सुझाया, लेकिन वह तैयार नहीं हुए. इसके बाद नरसिम्हा राव का नाम सुझाया गया.
विनय सीतापति का कहना है कि नरसिम्हा राव अनेक मंत्रालयों के काम में दक्ष थे, पर वित्तीय मामलों में उनका हाथ तंग था. पीसी एलेक्जेंडर उनके करीबी थे. राव ने उनसे कहा कि वह एक ऐसे शख्स को वित्त मंत्री बनाना चाहते हैं, जिसे आर्थिक मामलों की गहरी समझ हो.
एलेक्जेंडर ने आइजी पटेल का नाम सुझाया, जो आरबीआइ के गवर्नर रह चुके थे और उस दौरान लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के निदेशक थे, पर पटेल ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया. तब मनमोहन सिंह का नाम सुझाया गया. शपथ ग्रहण समारोह से एक दिन पहले 20 जून को एलेक्जेंडर ने मनमोहन सिंह को फोन किया. उस समय वह सो रहे थे.
उन्हें जगा कर बताया गया कि वह भारत के अगले वित्त मंत्री होंगे. मनमोहन सिंह को विश्वास नहीं हुआ. वह अगले दिन रोजाना की तरह यूजीसी के दफ्तर पहुंच गये. तब नरसिम्हा राव का फोन आया कि 12 बजे शपथ ग्रहण समारोह है, आप तत्काल आइए.
वित्त मंत्री के रूप में नरसिम्हा राव ने मनमोहन सिंह को खुली छूट दी और उन्होंने आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की और भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक बनाया. उन्होंने आयात-निर्यात व्यवस्था को सरल किया और निजी पूंजी निवेश को प्रोत्साहित किया.
इस दौरान आर्थिक नीतियों को लेकर मनमोहन सिंह लगातार निशाने पर रहे, लेकिन जल्द ही उदारीकरण के बेहतर परिणाम सामने आने लगे. देश की आज जो मजबूत अर्थव्यवस्था नजर आ रही है, उसकी नींव मनमोहन सिंह ने ही रखी थी.
कुछ लोगों को यह भ्रम है कि मनमोहन सिंह अचानक प्रधानमंत्री पद तक पहुंच गये थे. मनमोहन सिंह ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से शिक्षा पायी. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में डी फिल किया. पंजाब विश्वविद्यालय और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में शिक्षक रहे. 1971 में वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार बने.
1972 में वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाये गये. वह वित्त मंत्रालय के सचिव, योजना आयोग के उपाध्यक्ष, आरबीआइ के गवर्नर, पीएम के सलाहकार, यूजीसी के अध्यक्ष रहे. 1991 से 1996 तक देश के वित्त मंत्री रहे. उनका यह कार्यकाल उनके कैरियर का स्वर्णिम दौर माना जाता है. देश के आर्थिक इतिहास में इतने साहसिक और निर्णायक कदम किसी वित्त मंत्री ने नहीं उठाये हैं.
सोशल मीडिया पर उन्हें मौन प्रधानमंत्री, मौनी बाबा, मौन मोहन जैसे विशेषणों से नवाजा जाता है. इसमें आंशिक सच्चाई भी है. उन्होंने 22 मई, 2004 को पहली बार और 22 मई, 2009 को दूसरी बार पीएम पद की शपथ ली थी, पर पीएम के रूप में उनके अच्छे कार्य दब गये. उनकी ही पार्टी कांग्रेस ने उन्हें श्रेय नहीं लेने दिया. घोटालों और विवादों ने उनके कार्यकाल पर ग्रहण लगा दिया. दूसरे कार्यकाल में तो कांग्रेसी मंत्री अनियंत्रित थे.
उनकी पार्टी भी उन्हें कमतरी का एहसास कराती रही. सोनिया गांधी का राष्ट्रीय सलाहकार परिषद सुपर कैबिनेट की तरह काम करता था. सभी सामाजिक सुधारों के कार्यक्रमों की पहल करने का श्रेय उसे ही दिया जाता था. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे डॉक्टर संजय बारू ने उन पर एक किताब – एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर लिखी है.
उनका मानना है कि हालांकि सोनिया गांधी उनसे बहुत आदर से पेश आती थीं, लेकिन मनमोहन सिंह ने यह मान लिया था कि पार्टी अध्यक्ष का पद पीएम के पद से अधिक महत्वपूर्ण है. ऐसा देश में पहली बार हुआ. पीएम मनमोहन सिंह को इस बात की छूट नहीं थी कि वह अपने मंत्रियों का खुद चयन करें. संजय बारू ने एक दिलचस्प वाकये का जिक्र किया था.
मंत्रिमंडल में फेरबदल होना था. राष्ट्रपति को मंत्रियों के नाम भेजे जाने से ठीक पहले सोनिया गांधी का नामों में परिवर्तन का संदेश आया. लिस्ट टाइप करने का समय नहीं था. इसलिए मूल लिस्ट में एक नाम पर व्हाइटनर लगा कर दूसरा नाम लिख दिया गया. आंध्र के एस रेड्डी को शपथ दिलायी गयी और हरीश रावत का नाम काट दिया गया. कांग्रेसी नेता खुले आम कहते थे कि पार्टी पीएम से बड़ी है.
मनमोहन सिंह ने कभी इसका प्रतिवाद नहीं किया. लिहाजा, पीएम पद का रुतबा खत्म हो गया. रही-सही कसर राहुल गांधी ने पूरी कर दी थी. सितंबर, 2013 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान उन्होंने आपराधिक छवि वाले नेताओं से संबंधित अपनी ही सरकार के एक अध्यादेश की प्रति को फाड़ दिया था. वह अध्यादेश मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकृत था.
मनमोहन सिंह भाषण देने में झिझकते हैं. उनकी आवाज भी पतली है. उन्हें हिंदी पढ़नी नहीं आती है. वह भाषण या तो गुरमुखी में लिखते हैं या उर्दू में. हाल में उन्होंने एक समारोह में खुद पर चुटकी लेते हुए कहा था कि वह भारत के एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर ही नहीं हैं, एक्सीडेंटल वित्त मंत्री भी हैं. वह 1991 में पहली बार असम से राज्यसभा सांसद चुने गये थे.
इसके बाद से वह लगातार पांच बार राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे. एक बार लोकसभा का चुनाव भी लड़ा, लेकिन हार गये. ऐसी खबरें हैं कि असम विधानसभा में कांग्रेस के पर्याप्त सदस्य नहीं है, इसलिए कांग्रेस ने डीएमके से उन्हें तमिलनाडु से राज्यसभा में भेजने का अनुरोध किया है. देखना होगा कि मनमोहन सिंह की ब्रेक के बाद संसद में वापसी हो पाती है या नहीं.