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पानी गये न ऊबरे…

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com ट्रेफाल्गर स्क्वाॅयर, लंदन का एक चौराहा है, जहां 19वीं सदी के भारत में बनीं शेरों की प्रतिमाएं देखकर हर बार अपने पर्यावरणविद् (दिवंगत) मित्र अनुपम मिश्र याद आते हैं. उन्होंने अपने एक लेख में खुलासा किया था कि पहले पहल ऐसी मूर्तियां भारत के सुदूर इलाके […]

मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mrinal.pande@gmail.com
ट्रेफाल्गर स्क्वाॅयर, लंदन का एक चौराहा है, जहां 19वीं सदी के भारत में बनीं शेरों की प्रतिमाएं देखकर हर बार अपने पर्यावरणविद् (दिवंगत) मित्र अनुपम मिश्र याद आते हैं. उन्होंने अपने एक लेख में खुलासा किया था कि पहले पहल ऐसी मूर्तियां भारत के सुदूर इलाके रुड़की में गंग नहर के पुल के दोनों तरफ बिठाने के लिए तराशी गयी थीं.
तकरीबन डेढ़ सौ साल पहले रुड़की में जल प्रवाह के कुदरती नियम और मिट्टी-चूने-गारे के तमाम गुण जाननेवाले राजमिस्त्री मौजूद थे. उनकी मदद से बनवाया गया मानवीय हाथों से परिसीमित गंग नहर नाम का यह जल प्रवाह आज भी सिविल इंजीनियरिंग का श्रेष्ठ नमूना है.
अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध तक अंग्रेज उत्तरी भारत की अर्थव्यवस्था और उसके कुदरती संसाधनों में छुपी अपार संभावनाएं समझने लगे थे. आर्थिक तरक्की तेज करने के लिए पहली जरूरत थी पानी. तब नॉर्थ वेस्टर्न सूबे के अधिकारियों ने लंदन स्थित ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्यालय से गंगा की धारा का एक अंश अपने सैन्य इंजीनियरों द्वारा मेरठ छावनी तक पहुंचाने की दरख्वास्त दी.
इंजीनियरों और स्थानीय पारंपरिक भारतीय राज मिस्त्रियों की मदद से इस नहर का प्रारूप बनाया गया और सफलता से तामीर किया गया. इसके बाद स्थानीय लोगों की संगतराशी, स्थापत्य प्रतिभा और पर्यावरण ज्ञान को देखते हुए रुड़की में भारत का पहला इंजीनियरिंग काॅलेज खोलना तय हुआ और इस तरह जलधारा ने नवंबर 1847 में रुड़की विश्वविद्यालय का अवतरण कराया.
अंग्रेजों के लिए तो नदी के ऊपर से नहर निकालने की इस सारी जटिल मुहिम का उद्देश्य अपनी सेना छावनी तक जल प्राप्ति तय करवाना था. फिर यह भी दिखने लगा कि गंगा जी की धारा को हरिद्वार से एक नहर के जरिये स्थानीय नदी (सोनाली) के ऊपर से उतारकर मेरठ तक लाया जायेगा, तो शहर के लोगों से उसके पानी पर कर लेकर लाखों पाउंड भी कमाये जा सकेंगे.
काम स्वीकृत हुआ. इंजीनियरी का काम पूरा होने के बाद इंजीनियरों को स्थानीय वास्तुकारों ने यह भी सलाह दी कि पानी बहुत कीमती और पवित्र है, उसका संरक्षण करना जरूरी है. इसलिए एक तरफ से गंगा की पवित्र धारा को विदा करने और दूसरी तरफ उसका स्वागत करने के लिए नहर के दोनों तटों पर 16-17 फुट की शेरों की जोड़ी को बिठाकर उनकी विधिवत प्राण-प्रतिष्ठा की मांग हुई.
अंग्रेजों ने हामी भर दी. जब मूर्तियां बनीं तो वे इतनी सुंदर थीं कि चार धारा रक्षकों के अलावा एक शेर की प्रतिमा तो मुख्य अभियंता थॉमसन साहिब की कोठी पर लगवायी गयी और कुछ अन्य वैसी ही प्रतिमाएं 17 साल बाद लंदन के चौराहे के सौंदर्यीकरण के लिए भी बनवाकर भेजी गयीं.
जीवनभर पानी के पारंपरिक संरक्षण पर जोर देते और देशभर में घूम-घूमकर तमाम स्थानीय नदी, तालाबों, झीलों और कुंओं-बावड़ियों को बचाने के लिए निरंतर संघर्षरत अनुपम जी आज नहीं हैं. लेकिन आज जब चेन्नई से बुंदेलखंड तक पानी के लिए हाहाकार मचा है और औद्योगिक मर्म नगरी मुंबई जलभराव से डूब रही है, अनुपम जी की बुद्धिमत्तापूर्ण सलाहें स्मरणीय हैं.
सबसे ऊपर उनकी यह सलाह कि जल का सही तरह से बचाव न तो सरकारी किलेबंदी से होगा, न ही मैं, मेरा मुहल्लावादी स्वांत: सुखाय दृष्टि अपनाने से. यह काम परंपरा और आधुनिकता के मेल से बहुजन हिताय नजरिये से ही संभव है.
इस दईमारे स्मार्टफोन और नेट के युग में हम हिंदुस्तानियों की आर्थिक संपन्नता, तकनीकी ज्ञान और अंग्रेजी से उधार लिए शाब्दिक जुमलों के भंडार भले बढ़ गये हों, लेकिन बतौर एक समाज आज सारी दुनिया में लोग अकेले, स्वार्थी और अंतर्मुखी बन गये हैं. लिहाजा जल संकट का मसला वे दूसरों से नहीं, सिर्फ अपने हित स्वार्थ या राजनीतिक चालबाजी के चश्मे से देखने लगे हैं.
माननीय प्रधानमंत्री ने अपने साप्ताहिक रेडियो प्रवचन में जलसंरक्षण का मुद्दा उठाया. यह सामयिक तो था, लेकिन उसमें सरकारी या गैरसरकारी विकास कार्यों की तहत भीषण जल दोहन के लिए सरकारी जिम्मेदारी का स्वीकार नहीं था. अब जब माॅनसून आने में देर कर रहा है और चेन्नई जैसे शहर में लोग घर की बजाय बाजार जाकर खाने को मजबूर हो रहे हैं, तो जनता को जल संचय के काम में लगने को कहना आग लगने पर कुंआ खोदने को कहने सरीखा है.
जब कृषि वैज्ञानिकों से कहा जा रहा है कि कम जल का इस्तेमाल करनेवाले बीजों पर शोध करें, तो यह भी गौरतलब है कि आज के लगभग सभी कद्दावर नेता गन्ना, सहकारी चीनी मिलों, कृषि व्यापार मंडियों की अध्यक्षई और बड़े निर्माण-कर्ताओं के दिये चुनावी बांडों के बल पर ही राजनीति में उतरे और चमके हैं.
क्या वे धनकुबेर जनता से कहीं ज्यादा भूजल दोहन के दोषी नहीं हैं? नेतृत्व ही नहीं, विपक्ष ने भी जल संकट को चुनावी के वक्त कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनाया. चुनावी हंगामे के बीच हमने हजारों गैलन जल से काशी की सड़कों की धुलाई देखी. उधर वरणा और अस्सी नदियां और उनके सदियों पुराने कुंड सूखे पड़े हैं.
वाराणसी में बचा-खुचा गंगाजल आज औद्योगिक रसायनों और जल-मल व्ययन से इतना प्रदूषित है कि डाॅक्टर उससे कुल्ला आचमन न करने की सलाह दे रहे हैं. विशेषज्ञ बता रहे हैं कि 1947 से अब तक जल संरक्षण की उपेक्षा और पंपों की मार्फत भूगर्भ की जलसंपदा के बेतहाशा दोहन से पुराने जल स्रोतों के कुल एक-तिहाई ही बचे हैं. यही हाल रहा, तो 2030 तक धरती माता और गंगा माता का वंदन, अभिनंदन, आरती और चंदन भले ही होता रहेगा, पर भारत की धरती के भीतर का 40 फीसदी तक जल घट चुका होगा.
बेतहाशा बोरवेलों का प्रयोग होने से देश में 4,500 नदियां 20 लाख झीलें, कुएं और तालाब सूख चुके हैं. कई जगह तो तालाबों को पाटकर उन पर विशाल इमारतें बना दी गयी हैं. लोग प्रतिरोध करते तो हैं, पर ईमान से कहें आज जल, जंगल, जमीन किस पर जनता का हक रह गया है? पंचायत से लेकर राज्य की राजधानियों तक फैसले लेने में राजनेता ही हावी रहते हैं.
जाति, धर्म और लिंगगत भेदभाव से बांट दिये गये देश में पानी बचाने को समवेत जनभागीदारी होगी तो कैसे? निरंतर विपक्ष को या जनता की नासमझी को दोषी ठहराना बहुत हो गया. अब हमको शिखर नेतृत्व से प्रकृति और मानव जाति दोनों के प्रति परंपरागत समभाव, ममत्व और समझदारी की ध्वनियां भी सुनायी देनी चाहिए.

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