जीडीपी से ज्यादा कीमती जल

जगदीश रत्नानी वरिष्ठ पत्रकार editor@thebillionpress.org गत चुनावों के बाद अपने पहले ‘मन की बात ‘ के अंतर्गत प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्र के समक्ष उपस्थित जल संकट पर केंद्रित रहे. उन्होंने कहा, ‘हम जल संरक्षण की दिशा में एक जन आंदोलन की शुरुआत करें. हम सब मिल कर यह संकल्प लें कि हम जल की प्रत्येक बूंद […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 5, 2019 7:20 AM

जगदीश रत्नानी

वरिष्ठ पत्रकार

editor@thebillionpress.org

गत चुनावों के बाद अपने पहले ‘मन की बात ‘ के अंतर्गत प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्र के समक्ष उपस्थित जल संकट पर केंद्रित रहे. उन्होंने कहा, ‘हम जल संरक्षण की दिशा में एक जन आंदोलन की शुरुआत करें. हम सब मिल कर यह संकल्प लें कि हम जल की प्रत्येक बूंद बचायेंगे.’ चेन्नई एवं पूरे भारत के सामने इतिहास के सबसे भीषण जल संकट के संदर्भ में यह एक ज्वलंत मुद्दे पर सामयिक अपील है.

मगर जब तक इस समस्या के समग्र समाधान न किये जाएं, तब तक मोदी द्वारा जनता से किये गये तीन आग्रहों-पानी बचाने, उसके पारंपरिक तरीके सीखने तथा इस संदेश का प्रसार करने-से स्थिति में केवल मामूली फर्क ही पड़ेगा. यह समझ पाना कठिन नहीं रह गया है कि जल संकट विकास के उस मॉडल से पैदा संकट का एक प्रतिबिंब भर है, जिसे हर कीमत पर लागू करने को हमने विकास की गारंटी मान लिया.

ऐसा नहीं है कि इस मॉडल को भाजपा ने निर्मित किया, हालांकि गुजरात के मुख्यमंत्रित्व काल में मोदी ने पर्यावरण की कीमत पर तीव्र विकास के लिए इसी मॉडल का उपयोग किया. राष्ट्रीय स्तर पर यह मॉडल केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में परवान चढ़ा, जब उदारीकरण की शुरुआत के बाद कारोबारियों ने ज्यादा से ज्यादा मांगें पेश करते हुए विरोध की बाकी आवाजें दबा दीं. यह यूपीए सरकार ही थी, जिसने इन आरोपों के आधार पर जयराम रमेश को पर्यावरण मंत्री के पद से हटा दिया कि उनके अंतर्गत यह मंत्रालय पर्यावरणीय अनुमति प्रदान करने में अत्यंत कठोर हो गया था.

कुछ ही दिनों पूर्व जयराम रमेश ने वर्तमान पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को यह सलाह दी कि उन्हें पर्यावरण कानूनों की रक्षा पर दृढ़ होना चाहिए, न कि विभिन्न परियोजनाओं को उदारतापूर्वक अनुमति देने के श्रेय का आकांक्षी बनना चाहिए.

इन सबके बावजूद एक जोरदार जनादेश से संपन्न वर्तमान केंद्रीय सरकार से अधिक उपयुक्त स्थिति में और कोई नहीं है, जो विकास के एक नवोन्मेषी एवं वैकल्पिक मार्ग की तलाश कर सके. संभव है, यह नया मार्ग आमूल-चूल भिन्न न हो, पर दिशा के एक मामूली बदलाव का भी दीर्घकालिक निहितार्थ बहुत कुछ होगा, जो हमारी हरित अर्थव्यवस्था के लिए एक आधार तैयार कर सकेगा.

एक ओर तो महाराष्ट्र में ईख जैसी फसलों के लिए सिंचाई जल का प्रभूत उपयोग है, जिसका रकबा इसलिए बढ़ता जा रहा है कि यह राज्य के पश्चिमी हिस्से में चीनी कोआॅपरेटिव की सियासी शक्ति से जुड़ा है. देश में कृषि क्षेत्र कुल जल उपभोग के 85 प्रतिशत तक के लिए जिम्मेदार है, जिसे 30 प्रतिशत अथवा उससे भी अधिक बर्बादी के साथ अत्यंत अकुशल इस्तेमाल माना जाता है. इसके अलावा, विलासितापूर्ण आवासीय संकुलों का निर्माण भी एक मुद्दा है, जिनमें सिर्फ सुंदरता के लिए कृत्रिम जल निकायों के साथ ही बड़े पैमाने पर स्वीमिंग पूलों के निर्माण का चलन भी शामिल है.

दूसरी ओर, अपने कारोबार बढ़ाने हेतु कारोबारी नेतृत्वकर्ताओं की तरफ से दिया जाता लगातार दबाव है, जो पर्यावरणीय कानूनों को अपने रास्ते की बाधा समझते हुए उन्हें येन-केन-प्रकारेण लांघ डालना चाहते हैं. विनियामक तंत्र के कमजोर रहने पर उद्योग तथा ऊर्जा क्षेत्र के द्वारा पहुंचायी कुछ क्षतियां तो अत्यंत दीर्घकालिक प्रकृति की भी हो सकती हैं.

अभी तो विकास की बलिवेदी पर पर्यावरण और स्थानीय निवासियों से संबद्ध मुद्दे, उचित प्रक्रिया एवं स्थानीय आवश्यकताओं व संवेदनशीलताओं सहित स्थानीय वनस्पतियों एवं जंतुओं के प्रति सम्मान की कुर्बानी दे दी जाती है. अर्थव्यवस्था की वृद्धि के नाम पर राज्य सत्ता भी शोषणकारी पूंजीपतियों का साथ देते हुए प्रायः हिंसक उपायों में भी उनकी सहयोगी बन जाया करती है.

एकांगी विकास का यह विचार केवल तभी आकर्षक लगता है, जब किसी भी कीमत पर जीडीपी के अंक ही सबकुछ समझ लिये जाएं, पर अब यह मॉडल पूरे विश्व में असफल साबित हो रहा है. इसकी बजाय, पर्यावरण संरक्षण पर एक नये तथा पहले से भी ज्यादा जोर के साथ मंत्रालय द्वारा इन प्रक्रियाओं को और भी स्वस्थ, सबल, पारदर्शी और तीव्र बनाया जाना-जिसमें कड़े दंड के प्रावधान के साथ ही उनके उल्लंघनकर्ताओं के लिए कड़ी रुकावटें शामिल हों-वर्तमान क्रम में परिवर्तन तथा एक अधिक हरित किस्म के विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है.

इस परिवर्तन हेतु जरूरी दिशा एवं ऊर्जा महात्मा गांधी के आदर्शों से और अर्थव्यवस्था के उस परिवर्तन से ही आनी चाहिए, जो हमें यह बताते हैं कि कल के मॉडल पुराने पड़ चुके और शीघ्र ही तज दिये जायेंगे. इसका अर्थ उस देसी बुद्धिमत्ता पर भरोसा करना होगा, जिसके बूते पोरबंदर में बापू के घर के पीछे बना दो सौ वर्ष पुराना जल निकाय अभी भी वर्षा जल का संचय करते हुए काम आ रहा है.

पूरी पृथ्वी पर सतत जल प्रबंधन केवल स्वयं में ही एक सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) नहीं है, बल्कि यह कई अन्य सतत विकास लक्ष्यों को शक्ति देता है. जल वह आंतरिक धागा है, जो जीवन के बाकी सभी अवयवों से गुजरता हुआ सबको जीवन और सातत्य प्रदान करता है. इस अर्थ में जल जीडीपी से अधिक मूल्यवान है.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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