समांतर सिनेमा के पचास साल
अरविंद दास पत्रकार arvindkdas@gmail.com पिछले दशक में दिल्ली में ओसियान फिल्म महोत्सव हुआ करता था, जिसमें एशिया और अरब सिनेमा का मेला लगता था. समांतर सिनेमा के पुरोधा, मणि कौल, ओसियान के क्रिएटिव डायरेक्टर थे. वर्ष 2008 में आर्थिक मंदी के बाद ओसियान महोत्सव को बंद करना पड़ा और दिल्ली में इस बड़े स्तर पर […]
अरविंद दास
पत्रकार
arvindkdas@gmail.com
पिछले दशक में दिल्ली में ओसियान फिल्म महोत्सव हुआ करता था, जिसमें एशिया और अरब सिनेमा का मेला लगता था. समांतर सिनेमा के पुरोधा, मणि कौल, ओसियान के क्रिएटिव डायरेक्टर थे.
वर्ष 2008 में आर्थिक मंदी के बाद ओसियान महोत्सव को बंद करना पड़ा और दिल्ली में इस बड़े स्तर पर फिर से कोई सिनेमा का महोत्सव आयोजित नहीं हो सका. वे उन दिनों समांतर और मुख्यधारा के फिल्मकारों के बीच संवाद की कोशिश में थे.
असल में, इस साल हिंदी के न्यू वेव सिनेमा या समांतर सिनेमा के पचास साल पूरे हो रहे हैं. ‘फिल्म फाइनेंस काॅरपोरेशन’ से कर्ज लेकर मणि कौल ने 1969 में प्रयोगधर्मी फिल्म ‘उसकी रोटी’ बनायी थी. मृणाल सेन की ‘भुवनशोम’ और बासु चटर्जी की ‘सारा आकाश’ फिल्म के साथ इस फिल्म को समांतर सिनेमा की धारा शुरू करने का श्रेय दिया जाता है.
याद आया कि वर्ष 2006 के महोत्सव के दौरान मैंने मणि कौल से उनकी फिल्मों, समांतर और मुख्यधारा की फिल्मों के बीच रिश्ते और ऋत्विक घटक के बारे में लंबी बातचीत की थी.
मणि कौल ने कहा था कि उन्हें मोहन राकेश की इस कहानी में जो इंतजार और विछोह है, काफी प्रभावित किया था. उन्होंने कहा था कि ‘यह इंतजार हमें अनुभवजन्य समय से दूर ले जाता है, जहां एक मिनट भी एक घंटा हो सकता है.’ बाद में जब वे संगीत की शिक्षा ले रहे थे (वे ध्रुपद के सिद्ध गायक थे), तब सम और विषम के अंतराल में इस बात को काफी अनुभव करते थे.
उनकी फिल्मों- उसकी रोटी, आषाढ़ का एक दिन और दुविधा में स्त्रियों के द्वारा विभिन्न देश-काल में इस इंतजार का चित्रण मिलता है. साथ ही ‘ध्रुपद’ और ‘सिद्धेश्वरी’ फिल्म में संगीत के प्रति उनका लगाव दिखता है. मणि कौल साहित्य, संगीत और सिनेमा के बीच सहजता से आवाजाही करते थे.
हिंदी के चर्चित रचनाकार उदय प्रकाश ने पिछले दिनों एक बातचीत के दौरान मणि कौल की इसी सहजता को रेखांकित करते हुए मुक्तिबोध पर बनी उनकी फिल्म ‘सतह से उठता आदमी’ का उदाहरण दिया था और कहा था कि ‘मणि ही मुक्तिबोध को दाल-भात खाता हुआ दिखा सकते थे.’
सत्यजीत रे ने मणि कौल और समांतर सिनेमा के एक और प्रतिनिधि फिल्मकार कुमार साहनी की फिल्मों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि इनकी फिल्मों में ऋत्विक घटक की तरह ही ‘ह्यूमर’ नहीं मिलता.
ये दोनों एफटीआईआई, पुणे में घटक के शिष्य थे. पर निजी मुलाकातों में मणि कौल बेहद मजाकिया थे. बातचीत में उन्होंने हंसते हुए कहा था- ‘मुझसे ज्यादा एक्सट्रीम में बहुत कम लोग गये. जितनी फिल्में बनायी, सारी फ्लॉप!’ मणि कौल की फिल्में हिंदी सिनेमा को एक कला के रूप में स्थापित करती है.
जरूरत है कि आधी सदी के बाद मणि कौल की फिल्मों का पुनरावलोकन हो, ताकि हिंदी सिनेमा के इतिहास की इस महत्वपूर्ण धारा से नयी पीढ़ी रूबरू हो और मुख्यधारा के फिल्मकारों के साथ एक संवाद संभव हो सके.