मिथिलेश कु. राय
रचनाकार
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उस दिन भोर में जब मैं नंगे पांव घर से बाहर निकल रहा था, मुख्य द्वार पर मां, अंजली और बच्चे खड़े पूरब की तरफ निहार रहे थे. उनकी नजरें जैसे ही मुझ पर पड़ी, उन्होंने कहा-देखो, बारिश आ रही है! मुझे लगा कि जैसे वे यह कह रही हो कि देखो, खुशी आ रही हैं! मैंने पूरब की तरफ निहारा. सचमुच, बारिश आ रही थी.
घर के सामने की सड़क पर पांच-सात लोग जमा थे. कक्का भी थे. सारे पूरब की ओर देख रहे थे. मुझे देखते ही कक्का ने किलकते हुए कहा- आओ, देखो, बारिश आ रही है! मैंने देखा-बारिश आ रही थी. बादल के काले-काले बहुत सारे टुकड़े हवा पर सवार होकर पूरब में जमा हो रहे थे और सूरज का कहीं भी पता नहीं था.
बादल काला और अधिक स्याह हो रहा था और वह मध्यम से कुछ तेज चल रही हवा पर हौले-हौले ऐसे डोल रहा था मानो नदी में तरंग उठ रही हो. मैंने आस-पास के पेड़-पौधों पर गौर किया. वे मगन लग रहे थे. जैसे नाच रहे हो. इस खुशी में कि बारिश आ रही है. लोगों के चेहरे इतनी सी बात पर खिल उठे थे. कक्का तो मानो बच्चा ही बन गये थे और एकटक बादल के बनते-बिगड़ते दृश्यों को देख रहे थे.
तभी बादल के टुकड़ों में जैसे एकसाथ कई छेद हो गये और वहां से बूंदें रिसने लगीं. जमा लोग घर की ओर भागने लगे. लेकिन कक्का ने मेरी बांहें पकड़कर अमरूद के पेड़ के नीचे खींच लिया. वे यह कह रहे थे कि मूसलाधार बारिश होने पर ही इस घने छायादार पेड़ के पत्ते बूंदों को नीचे टपकने देंगे. नहीं तो उसे अपने पत्तों के ऊपर ही सुरक्षित रख लेंगे.
बारिश की बूंदाबांदी शुरू हुई ही थी कि हवा तेज बहने लगी और वह बादल के टुकड़ों को तितर-बितर करने लगी. कक्का कह रहे थे कि मन तो होता है कि खेतों की और निकल जायें. खेतों में बारिश का नजारा कुछ और ही होता है. बूंदें गिरने से पहले ही बांस के झुरमुट झूमने लगते हैं और उस पर झूलती चिड़िया किल्लोल करने लगती हैं.
वृक्ष अपनी टहनियों को इस तरह हिलाने लगता है कि पत्ते बजने लगते हैं और कोई संगीत फूट पड़ता है. पौधों की तो बात ही मत पूछो. बारिश आने से पहले की हवा में वे टूटने की हद तक झूक जाते हैं और बार-बार मिट्टी को चूमने लगते हैं.
कक्का यह कह रहे थे कि जब बारिश की बूंदें नीचे जमीन पर गिरने लगतीं हैं, वहां खेतों में एक गंध फैल जाती हैं. जो इतनी दिलकश होती है कि मन मदहोश हो जाता है. फिर वे यह कहने लगे कि वह गंध तुम्हें यहां महसूस नहीं होगा. जहां सूखी मिट्टी का बारिश की बूंदों के साथ मिलन होता है, वह गंध वहीं पसरती है! मनुष्य के पास तो तमाम सुविधाएं हैं.
लेकिन धरती आज भी मौसमों का इंतजार करती हैं. जब मौसम आता है, मिट्टी से जुड़ी चीजें झूम उठती हैं और एक गंध पसर जाती है. उनका कहना था कि मनुष्य भले आसमान की बातें कर ले, लेकिन उसके पांव धरती पर ही रहते हैं. इसलिए जब घटा छाती है, उनका दिल बाग-बाग हो उठता है!