कौन उठायेगा विपक्षी राजनीति का झंडा!
।। उर्मिलेश ।। वरिष्ठ पत्रकार विनिवेश प्रस्ताव सहित कई ‘नकारात्मक’ कदमों पर भी कुछ दलों ने सरकार को समर्थन दिया है. इससे यह बात साफ हुई कि राजनीति में ज्यादातर दलों के अपने-अपने स्वार्थ ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं. जनता का हित, मुद्दे और नीतियां गौण हैं. हाल ही में संसद द्वारा पारित ‘टेलीकॉम रेगुलेटरी […]
।। उर्मिलेश ।।
वरिष्ठ पत्रकार
विनिवेश प्रस्ताव सहित कई ‘नकारात्मक’ कदमों पर भी कुछ दलों ने सरकार को समर्थन दिया है. इससे यह बात साफ हुई कि राजनीति में ज्यादातर दलों के अपने-अपने स्वार्थ ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं. जनता का हित, मुद्दे और नीतियां गौण हैं.
हाल ही में संसद द्वारा पारित ‘टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी आफ इंडिया (ट्राइ) संशोधन विधेयक’ पर सपा-बसपा-एनसीपी-टीएमसी-बीजद सहित कई प्रमुख दलों ने नरेंद्र मोदी सरकार का समर्थन करके विपक्षी-राजनीति के चेहरे में बदलाव को रेखांकित किया. विनिवेश प्रस्ताव सहित कई ‘नकारात्मक’ कदमों पर भी कुछ दलों ने सरकार को समर्थन दिया है. इससे यह बात साफ हुई कि राजनीति में ज्यादातर दलों के अपने-अपने स्वार्थ ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं. जनता का हित, मुद्दे और नीतियां गौण हैं.
दलों के स्वार्थ का मतलब है- दलों के शीर्ष नेतृत्व का स्वार्थ. चार-पांच प्रमुख विपक्षी दलों ने ट्राइ संशोधन विधेयक के समर्थन के पीछे अलग-अलग तर्क दिये. पर इनके समर्थन का सबसे बड़ा कारण था- ‘सत्ता के डंडे का डर.’ और यह डर खत्म होनेवाला नहीं है. दामन साफ नहीं है, इसलिए इन्हें डरते-डरते ही सियासत करनी होगी. ऐसे में तो इनसे विपक्ष की सुसंगत राजनीति की कल्पना सत्ता के मोदी-काल में नहीं की जा सकती!
बीते दो दशक से सपा और बसपा के शीर्ष नेतृत्व को बम-पिस्तौल से भी ज्यादा डर सीबीआइ से लगता रहा है. इसीलिए कांग्रेस-यूपीए नेतृत्व ने बीते दस सालों के दौरान इन दोनों दलों के शीर्ष नेताओं को अपने चंगुल में रखा और इनका इस्तेमाल किया. एनडीए भला यूपीए की इस तरकीब को क्यों छोड़े! सपा-बसपा कहने को तो एनडीए के विरोधी हैं, पर यह बात साफ हो चुकी है कि उनका विरोध कागजी है.
इस कतार में अब तृणमूल कांग्रेस भी शामिल नजर आ रही है. शारदा चिटफंड और मीडिया-निवेश से जुड़े घोटाले में पार्टी के एक राज्यसभा सांसद की गिरफ्तारी के बाद पार्टी के कुछ बड़े नेता भी अपने को असुरक्षित महसूस करने लगे हैं. वैसे भी भाजपा और आरएसएस की नजर अब दिवंगत श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सूबे पर है. वामपंथियों के राजनीतिक पतन के बाद भाजपा वहां अपने राजनीतिक विस्तार के लिए सर्वथा अनुकूल माहौल देख रही है. ऐसे में वह सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के प्रभामंडल और राजनीतिक विश्वसनीयता को रौंदने की हरचंद कोशिश करेगी. ओड़िशा में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल (बीजद) सोच के स्तर पर एक ‘अराजनीतिक शक्ति’ है. वह अपने फायदे के लिए किसी भी तरफ झुक सकती है. ऐसे में उससे अर्थनीति या किसी बड़े नीतिगत मामलों में भाजपा-एनडीए के विरोध की अपेक्षा नहीं की जा सकती.
यूपीए घटक-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) का ज्यादा जोर अपने निहित-स्वार्थो की पूर्ति पर होता है. सिर्फ ट्राइ संशोधन विधेयक पर ही नहीं, हाल के कई अन्य मुद्दों पर भी वह यूपीए का घटक रहते हुए भी भाजपा के प्रति मुलायम दिखी. पार्टी अध्यक्ष शरद पवार, उनकी सुपुत्री सुप्रिया सुले, प्रफुल्ल पटेल और डीपी त्रिपाठी जैसे एनसीपी नेताओं ने तो कई मुद्दों पर प्रधानमंत्री मोदी का यशोगान भी किया. पवार और पटेल ने गुजरात दंगों का मामला उठाये जाने के लिए अपने कथित मित्र-दलों कांग्रेस और वामपंथियों की आलोचना तक कर डाली. त्रिपाठी ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री की तारीफ के पुल बांधते हुए कहा कि वह भारत के ‘पहले गैर-अभिजन और गैर-अंगरेजीदां प्रधानमंत्री’ हैं.
लगता है, त्रिपाठी को लालबहादुर शास्त्री, चंद्रशेखर, एचडी देवगौड़ा और चौधरी चरण सिंह के नाम ही याद नहीं रहे. एनसीपी के पवार-परिवार की सबसे बड़ी समस्या है कि वह केंद्र या राज्य (महाराष्ट्र) में सरकार-विरोधी खेमे में सक्रिय तौर पर शामिल नहीं हो सकता. परिवार के सदस्यों पर कई गंभीर आरोप लंबे समय से दबे पड़े हैं. उधर, दक्षिण में अन्नाद्रमुक-द्रमुक की राजनीति पूरी तरह राज्य-केंद्रित है. दोनों के शीर्ष नेता या उनके परिजन कई वर्षो से सीबीआइ, आयकर विभाग या अन्य केंद्रीय एजेंसियों के राडार पर हैं. सीमांध्र में सत्तारूढ़ तेलुगू देशम पार्टी केंद्रीय राजनीति में पूरी तरह से भाजपा के साथ है. वाइएसआर कांग्रेस के नेतृत्व व परिवार पर भी लंबे समय से सीबीआइ की छाया है.
फिर विपक्ष की सुसंगत राजनीति करने के लिए बचता कौन है? साफ-सुथरी छवि की पार्टियों में वामपंथी दल, जनता दल (यू) और आम आदमी पार्टी (आप) प्रमुख हैं. संसद में इनकी ताकत बेहद कम है. लेकिन सड़क पर उतरने के रास्ते सबके लिए खुले हैं. संसद में अपेक्षाकृत बड़ा विपक्षी दल कांग्रेस ही है. यूपीए में उसका दूसरा सहयोगी दल राजद है, जिसके नेता लालू प्रसाद भ्रष्टाचार के मामले में दोषी हैं. वह चुनाव लड़ने के अयोग्य भी घोषित हो चुके हैं. राजद केंद्र और सूबे की राजनीति में भाजपा का लगातार विरोध करता आ रहा है. इधर, जनता दल (यू) के साथ उसके रिश्ते में गुणात्मक बदलाव के संकेत मिल रहे हैं.
ऐसे में ले-देकर यही चार-पांच दल भाजपा-नीत एनडीए या मोदी सरकार के खिलाफ खड़े होने की क्षमता रखते हैं. अब तक मिल रहे संकेतों से साफ है कि एनडीए सरकार सांप्रदायिक-संकीर्णता और कॉरपोरेट-हित के एजेंडे पर जोर देगी. लेकिन दोनों के लिए ‘राष्ट्रवाद और विकास’ का मनभावन आवरण होगा. भारी बहुमत के दबदबे में निकट भविष्य में कई ऐसे फैसले भी हो सकते हैं, जिनका अर्थव्यवस्था और समाज-व्यवस्था पर लंबे समय तक नकारात्मक असर रहेगा.
अपने संसाधनों का द्वार देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों के लिए खोलने और खुदरा व्यापार एवं रक्षा उत्पादन सहित कई संवेदनशील क्षेत्रों में एफडीआइ लाने की इस अनोखी ‘राष्ट्रवादी-ललक’ का कांग्रेस समर्थन कर रही है. अब बड़े राष्ट्रीयकृत बैंकों की बारी है, इनमें भी कुछ निजी हिस्सेदारी की बात चल रही है. रेलवे, मेट्रो, प्रस्तावित बुलेट ट्रेन, सौ प्रस्तावित स्मार्ट शहरों, विश्वविद्यालयों, प्रबंधन संस्थानों, आइआइटी और मेडिकल कॉलेज अस्पतालों के निर्माण में भी निजी-भागीदारी के कार्यक्रम बन रहे हैं.
भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश, जिसमें हर जाति-समुदाय के गरीबों, दलित-उत्पीड़ितों, पिछड़ों, आदिवासियों, ग्रामीणों, बेरोजगारों और बेहालों की संख्या सबसे ज्यादा है; शासन, सामाजिक क्षेत्रों, शिक्षा-स्वास्थ्य और समूची अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र का बढ़ता दबदबा अंतत: असमानता व असंतुलन बढ़ायेगा. ऐसी नीतियों से ‘कल्याणकारी राज्य’ को पुख्ता करने या संवारने के बजाय उसके बचे ढांचे को पूरी तरह मटियामेट किया जा सकता है.
ऐसे दौर में विपक्ष का सुसंगत व समझदार होना जरूरी है. इसके अलावा लोगों को जोड़नेवाले आकर्षक नेतृत्व या नेतृत्वकारी टीम की भी दरकार है, जो कम-से-कम आज कांग्रेस के पास तो बिल्कुल ही नहीं है. वह स्वभाव से भी विपक्षी-दल नहीं है. फिर कौन उठायेगा सुसंगत विपक्षी-राजनीति का झंडा? इस सवाल के जवाब में ही छुपी है राष्ट्रीय राजनीति की भावी तसवीर.