जस्टिस काटजू के खुलासे से मिली सीख

लोकतांत्रिक राजव्यवस्था ताकत के बंटवारे के सिद्धांत पर चलती है. लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है, जब न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को परस्पर समन्वित रखने के प्रयास करते हुए इस बात का ध्यान रखा जाये कि इनमें से कोई एक, राजव्यवस्था के शेष हिस्सों की संविधान-प्रदत्त स्वायत्तता पर चोट न पहुंचा सके. रिटायर्ड जस्टिस मरकडेय […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 22, 2014 7:04 AM

लोकतांत्रिक राजव्यवस्था ताकत के बंटवारे के सिद्धांत पर चलती है. लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है, जब न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को परस्पर समन्वित रखने के प्रयास करते हुए इस बात का ध्यान रखा जाये कि इनमें से कोई एक, राजव्यवस्था के शेष हिस्सों की संविधान-प्रदत्त स्वायत्तता पर चोट न पहुंचा सके.

रिटायर्ड जस्टिस मरकडेय काटजू ने अपने ब्लॉग में मद्रास हाइकोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान एक भ्रष्ट जज की नियुक्ति का जो किस्सा बयान किया है, उसके संदर्भ में यह बात सबसे पहले याद की जानी चाहिए. जस्टिस काटजू के मुताबिक, इस जज ने अपनी अदालत में तमिलनाडु के एक प्रभावशाली नेता के पक्ष में फैसला सुनाया था. काटजू का कहना है कि गंठबंधन-धर्म निभाने की मजबूरी के साथ चली पिछली यूपीए सरकार के सरपंचों की सरपरस्ती में, सुप्रीम कोर्ट के शीर्ष जजों की सलाह की अवहेलना करते हुए इस भ्रष्ट जज को लगातार प्रोन्नत किया गया.

इस किस्से की सच्चई से राजनीति और न्यायपालिका की मिलीभगत के बूते फैले भ्रष्टाचार के दलदल की गहराई का भी पता मिलता है. फौरी तौर पर लग सकता है कि इसमें अगर कोई दोषी है, तो उस पर विधिपूर्वक कार्रवाई हो. लेकिन, बात इतने भर से समाप्त नहीं होती. असल सवाल व्यवस्थागत दोष के निवारण का है. इसलिए जस्टिस काटजू द्वारा बयां की गयी कहानी की नैतिक सीख पर भी गौर किया जाना चाहिए. और सीख यही है कि हमारी लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में राजनीति के शीर्ष पर विराजमान व्यक्तित्व ‘चेक एंड बैलेंस’ यानी ‘अंकुश एवं संतुलन’ की व्यवस्था को आसानी से धता बताते हुए मनमाना व्यवहार कर सकते हैं.

ऐसे मनमाने व्यवहार को रोकने के लिए किस तरह के इंतजाम किए जाएं, यही इस कथा की मूल चुनौती है. न्यायाधीशों की नियुक्ति के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम और केंद्र सरकार के बीच खींचतान के मौजूदा माहौल में ऐसे इंतजाम पर पहुंचने की कोशिशों को लेकर फिलहाल बहुत संभावनाशील तस्वीर नहीं बनायी जा सकती. फिर भी, इतना जरूर कहा जा सकता है कि अगर मामले से जुड़े सभी पक्ष ईमानदारी एवं सद्भाव के साथ सोचें तो न्यायपालिका को राजनीति के संकीर्ण हितों का भार ढोनेवाला वाहन बनने से बचाया जा सकता है.

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