संयुक्त परिवार के टूटने का मर्म

संजय यादव टिप्पणीकार yadav.sanjay009@gmail.com एक समय था, जब लोग संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे. जिसका जितना बड़ा परिवार होता, वह उतना ही संपन्न और सौभाग्यशाली माना जाता था. तब व्यक्ति की प्रधानता नहीं थी, बल्कि परिवारों की प्रधानता थी. संयुक्त परिवारों के उस दौर में परिवार के सदस्यों में प्रेम, स्नेह, जिम्मेदारी, भाईचारा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 16, 2019 7:44 AM

संजय यादव

टिप्पणीकार

yadav.sanjay009@gmail.com

एक समय था, जब लोग संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे. जिसका जितना बड़ा परिवार होता, वह उतना ही संपन्न और सौभाग्यशाली माना जाता था.

तब व्यक्ति की प्रधानता नहीं थी, बल्कि परिवारों की प्रधानता थी. संयुक्त परिवारों के उस दौर में परिवार के सदस्यों में प्रेम, स्नेह, जिम्मेदारी, भाईचारा और अपनत्व का माहौल रहता था. इसका फायदा परिवार के साथ पूरे समाज को मिलता था और जो पूरे समाज और राष्ट्र को एकसूत्र में बांधने का संदेश देता था.

वैचारिक संयम, बड़ों की कद्र व सम्मान, छोटे-बड़े का कायदा, नियंत्रण इन सब बातों का प्रभाव था. ऐसे ही परिवारों से सामूहिक समाज का निर्माण हुआ था और पूरा गांव एक परिवार की ही तरह रहता था. गांव का बुजुर्ग सबका बुजुर्ग माना जाता था, जिसका सब सम्मान करते थे. अगर किसी की बेटी की शादी पड़ती थी, तो लोग आलू, आटा, चावल, दाल, लकड़ी, दूध आदि सामान बिना कहे पहुंचा देते थे और कहते थे कि वह हमारी भी बेटी है. लोग रिश्ते निभाते थे, ढोते नहीं थे.

आज बदलते दौर ने इस सारी व्यवस्था को बदलकर रख दिया है. अब परिवार छोटे हो गये हैं और सब लोग स्व में केंद्रित होकर जी रहे हैं. अब एक व्यक्ति को अपने बच्चों और अपनी बीवी के अलावा किसी और का सुख-दुख नहीं दिखता है.

जीवन से संघर्ष करता हुआ व्यक्ति आज रिश्तों को भूलता जा रहा है. आज के बच्चों को अपने चाचा, मामा, मौसी, ताया के लड़के-लड़की अपने भाई-बहन जैसे नहीं लगते. उन्हें इन रिश्तों की मिठास और प्यार का अहसास ही नहीं हो पाता है, क्योंकि कभी उन्होंने इन रिश्तों की गर्माहट को महसूस ही नहीं किया होता है.

स्कूल के बस्ते के बोझ में दबा बचपन रिश्तों की पहचान भूल गया है. आज का व्यक्ति सिर्फ अपनी जिंदगी जी रहा है, उसे दूसरे की जिंदगी में देखना दखलअंदाजी लगता है. वह दुनिया की खबर इंटरनेट से रख रहा है, पर पड़ोसी का हाल उसे नहीं पता है. जब से व्यक्ति ने अपने भतीजे-भतीजी को छोड़कर सिर्फ अपने बेटे-बेटी के बारे में सोचना शुरू किया है, तब से संयुक्त परिवार टूटे हैं. परिवार में सिर्फ मेरा योगदान ज्यादा है, इस सोच ने संयुक्त परिवारों में दरार डाली. व्यक्ति का सोचना कि कैसे मेरा बेटा सबसे आगे निकले, इसने अपनत्व और भाईचारे की भावना को आघात पहुंचाया है.

आज हालात यह है कि समाज में रिश्तों की पहचान समाप्त हो गयी है, बच्चों से बचपन छिन गया है और बड़ों से बड़प्पन. एकल परिवार की विडंबना है कि मां-बाप अपने ही बच्चों के साथ समय नहीं बिता पाते.

आज जरूरत है औपचारिकताओं को मिटाकर दिमाग के दरवाजे खोलने की, ताकि आपके दिल में सारा परिवार समा जाये और आपको लगे कि यह शहर मेरा है, यह परिवार मेरा है, यह गांव मेरा है. हम अपने संस्कारों को न भूलें, अपनी परंपराओं को न भूलें. जीवन में विकास और समृद्धि बहुत जरूरी है, लेकिन विकास, पढ़ाई-लिखाई और समृद्धि की आड़ में परंपराओं एवं पारिवारिकता को भूल जाना नासमझी है.

Next Article

Exit mobile version