नेतृत्व को लेकर अविश्वास का माहौल

बीते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार अप्रत्याशित नहीं थी, पर हार का आकार हैरतअंगेज जरूर था. बड़ी हार के बाद संदेश बड़ा साफ था कि देश के भीतर पार्टी और पार्टी के भीतर शीर्ष नेतृत्व की साख संकट में है. लेकिन, कांग्रेस-नेतृत्व को घेरे रहनेवाले दरबारी कुनबे और स्वयं कांग्रेस-नेतृत्व ने आंखों के सामने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 23, 2014 6:17 AM

बीते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार अप्रत्याशित नहीं थी, पर हार का आकार हैरतअंगेज जरूर था. बड़ी हार के बाद संदेश बड़ा साफ था कि देश के भीतर पार्टी और पार्टी के भीतर शीर्ष नेतृत्व की साख संकट में है. लेकिन, कांग्रेस-नेतृत्व को घेरे रहनेवाले दरबारी कुनबे और स्वयं कांग्रेस-नेतृत्व ने आंखों के सामने हठात् आ खड़े हुए संदेश को पढ़ने से इनकार कर दिया.

एक सुर में कहा गया कि दोष कांग्रेस आलाकमान का नहीं, पूरी पार्टी का है. सच्चाई से इनकार का ही प्रमाण है कि हाल के समय में पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के एक विशेष प्रकोष्ठ से बैठक की, तो चुनाव-परिणाम के आंकड़ों का निष्कर्ष समवेत स्वर से यह निकला कि पार्टी का जनाधार उसके प्रमुख समर्थक समूहों- दलितों, आदिवासियों, गरीबों तथा अल्पसंख्यकों के बीच पहले की तरह मजबूत है. यदि इसे क्षण भर को मान लें, तो भी क्या कांग्रेस नेतृत्व यह नहीं देख सका कि लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार का अप्रत्याशित आकार दरअसल पार्टी में सोच और संगठन के स्तर पर आमूल-चूल बदलाव की मांग कर रहा है?

लगता यही है कि कांग्रेस-नेतृत्व के भीतर न तो सच देख पानेवाली नजर बची है और ना ही आत्म-परीक्षा का नैतिक साहस. इसी की बानगी है कि आज कांग्रेसी शासन के बचे-खुचे सूबों में पार्टी-नेतृत्व को लेकर बगावत के स्वर तेज हो रहे हैं, लेकिन शीर्ष-नेतृत्व इसे पार्टी का अंदरूनी मामला मान कर पल्ला झाड़ रहा है. महाराष्ट्र में पार्टी के कद्दावर नेता नारायण राणो का मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के नेतृत्व के विरुद्ध इस्तीफा और असम में मंत्री हेमंत विश्व शर्मा का मुख्यमंत्री तरुण गगोई के नेतृत्व में रहने से इनकार और कई विधायकों के साथ इस्तीफा इस बात के मुखर संकेत हैं कि पार्टी में ऊपर से नीचे तक मौजूदा नेतृत्व को लेकर अविश्वास का माहौल है.

हरियाणा और केरल की कांग्रेस में सांगठनिक स्तर पर उठे विरोध के स्वर इस अविश्वास की पहले ही सूचना दे चुके हैं. एक नेता के रूप में राहुल के लिए यह परीक्षा की घड़ी है. उन्हें और उनके सलाहकारों को साबित करना होगा कि पार्टी एकजुट रखी जा सकती है, वरना कांग्रेस 1990 के दशक की तरह कई सत्ता-केंद्रों वाली छिन्न-भिन्न पार्टी की नियति को प्राप्त होगी!

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