शैक्षिक असमानता की जड़ें
मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mri-al.pa-de@gmail.com शिक्षा पर चर्चा उठते ही हर पढ़ा-लिखा, यानी रोज अखबार पढ़ने और टीवी पर खबरें सुननेवाला भारतीय जानकार बन बैठता है. आम राय यही बनती है कि देश की लगातार खराब होती जा रही शिक्षा प्रणाली ही भारतीय गरीबी और सामाजिक असमानता की मूल वजह है. […]
मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mri-al.pa-de@gmail.com
शिक्षा पर चर्चा उठते ही हर पढ़ा-लिखा, यानी रोज अखबार पढ़ने और टीवी पर खबरें सुननेवाला भारतीय जानकार बन बैठता है. आम राय यही बनती है कि देश की लगातार खराब होती जा रही शिक्षा प्रणाली ही भारतीय गरीबी और सामाजिक असमानता की मूल वजह है.
हुनरमंदी बढ़ानेवाली शिक्षा प्रणाली बनकर लागू हुई नहीं कि गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक विषमताएं अपने आप मिट जायेंगी और देश आगे चलेगा नहीं साहब, दौड़ने लगेगा. अनुभव के उजास में यह बात कतई गलत साबित होती है. आरक्षण और कोचिंग स्कूलों के बावजूद हमारे देश में जितने काॅलेज डिग्रीधारक बेरोजगार आज हैं, उतने पहले कभी नहीं थे. काॅलेज की डिग्री मध्यवर्गीय श्रेणी में जाने का पासपोर्ट नहीं बनी, तो सिसकती बेरोजगारी के मारों को यह मजाकिया संदेश दिया गया कि वे पकौड़े के ठेले लगा लें. क्यों नाहक नौकरियों के लिए मरे जा रहे हैं?
उच्च शिक्षा केंद्रों से मिली डिग्रियों का आज गरीबी या सामाजिक विषमता हटाने लायक बेहतरीन रोजगारों का कोई रिश्ता नहीं. सूचना तकनीकी और मीडिया से सेवा क्षेत्र तक नयी तरह की नौकरियां नयी तरह के हुनर मांगती हैं, जो काॅलेज नहीं देते.
स्किल अपग्रेडेशन के नाम पर मंत्रालय बना, नयी शिक्षा नीतियों के लिए आयोग बैठे, रपटें बनीं, निजी स्कूलों, सरकारी स्वीकृति और सब्सिडियों से चलनेवाले तमाम उच्च शिक्षा संस्थानों में गरीब-पिछड़े युवाओं के लिए आरक्षण लागू हुआ. पर अमीर-गरीब के बीच के फासले कम नहीं हुए. शिक्षा पर शोध करनेवालों ने पाया कि किसी बच्चे के घरेलू माहौल का उसकी शैक्षणिक क्षमता पर सबसे गहरा असर पड़ता है.
जब तक व्यापक तौर से सामाजिक-आर्थिक विषमताएं नहीं मिटतीं, तब तक हम उनको फ्रीशिप, फ्री किताब-कापियां और आरक्षित सीटें दिलवा भी दें, तो भी अनपढ़ अभिभावकों वाले उन बच्चों से, जो दिन रात गंदगी, बीमारियों और अभाव के बीच मलिन बस्तियों में रहते हैं, हम कई पीढ़ियों से साक्षर और सुरक्षित मध्यवर्गीय बच्चों से सक्षम प्रतिस्पर्धा की उम्मीद नहीं कर सकते. शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है. लेकिन, यहां के गुणवत्तायुक्त शिक्षा संस्थानों तक आज भी अधिकतर गरीबों की पहुंच नहीं है.गरीबी कम करने में राज्यों की न्यूनतम मजदूरी दर का बड़ा हाथ रहता है.
गत तीन जुलाई को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 2018 की कीमतों के आधार पर नये सिरे से तय न्यूनतम मजदूरी के एक नये कोड को स्वीकृति दी, जो जल्द ही लोकसभा के पटल पर रखा जायेगा. श्रम मंत्री संतोष गंगवार और ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि इस नये कोड में सबसे बड़ी जनाधारवाली ग्रामीण रोजगार योजना- मनरेगा को तो शामिल ही नहीं किया गया है.
एक जानेमाने काॅरपोरेट विशेषज्ञ अंग्रेजी में लिखते हैं कि गरीबी हटाने की बजाय अमीरी लाने के प्रयास अधिक तरक्की लायेंगे. क्या कहने? और सरकार अमीरी लाने को कमर कस ले तो मजदूरों का क्या? बीते पांच सालों का रिकाॅर्ड देखकर लगता है कि सत्ता की राय में भी भारतीय जनता के बीच गरीबी और सामाजिक विषमता कम करने के लिए अमीरी, यानी कॉरपोरेट गतिविधियों और शहरीकरण को बढ़ावा मिले.
इसके तहत बड़े खदान, सिंचाई और बिजली उत्पादन के उपक्रमों, विशाल सड़कों के जाल बनाना अनिवार्य है. अन्न हम चाहे आयात कर लें, लेकिन किसानी-गरीबी की काट से पहले सरकारी तथा निजी स्तर पर उन उपक्रमों को हर तरह से तवज्जो देनी होगी, जिसके लिए विदेशी कंपनियां पूंजी लगाने को राजी हैं.
फिर क्षोभ जताया जाता है कि जेएनयू और कभी प्रयाग सरीखे परिसरों में युवा छात्र उपद्रवी होते रहते हैं. उनको सुनने की बजाय अब परिसरों को बदलने की मुहिम जारी है. और महिला सशक्तीकरण का सवाल उन्हें उच्चशिक्षा देने की बजाय उनको कुकिंग गैस सिलिंडर उपलब्ध कराने और शौचालय निर्माण तक सिमटा दिया गया है.
भारतीय कामगार भारतीय महिलाओं की स्थिति पर हार्वर्ड विवि की चर्चित शोध संस्था ई-पॉड,(एविडेंस फॉर पॅलिसी रिसर्च) के ‘श्रृंकिंग शक्ति’ (सिकुड़ती शक्ति) शीर्षक शोध रपट के अनुसार, पिछले दशक में संगठित तथा असंगठित, दोनों ही तरह के भारतीय कामगारों में महिलाओं की भागीदारी में चिंताजनक गिरावट आयी है.
और 2.5 करोड़ कमासुत महिला कामगार कार्यक्षेत्र से बेदखल हो गयी हैं. ‘ब्रिक्स’ देशों में हम महिलाओं को रोजगार देने के क्षेत्र में सबसे निचली पायदान पर हैं और जी-20 देशों की तालिका में नीचे से दूसरी पायदान पर हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार जब महिलाएं घर से बाहर निकलकर काम करती हैं, तो उनकी घरेलू आय तो बढ़ती ही है, उनके देश की उत्पादकता दर भी 48 प्रतिशत तक बढ़ जाती है.
भारत में आज कृषि क्षेत्र और ग्रामीण जोत के आकार, दोनों सिकुड़ रहे हैं, जिससे खेती-बाड़ी या पशुपालन के पारंपरिक कामों से महिलाएं बेदखल हुई हैं.
उधर महिला स्वतंत्रता के खिलाफ कट्टरपंथी उभार के बावजूद हमारा पड़ोसी बांग्लादेश महिलाओं को तेजी से स्वावलंबी और हुनरमंद कामगार बनवाकर हमसे बेहतर प्रदर्शन कर रहा है. इसीलिए इस बात का प्रावधान सरकार को करना जरूरी है कि न्यूनतम मजदूरी दरें तय करने में विशेषज्ञों की सुनी जाये और मुनाफाखोर मालिकान महिलाओं को समान वेतन देने में ना नुकुर न कर सकें.