कहां हैं कांग्रेस के नेता राहुल गांधी!

।। आकार पटेल ।। वरिष्ठ पत्रकार भारतीय राजनीति में नेतृत्व करने के लिए सिद्धांतों की कम जरूरत होती है और उसके लिए बहुत अधिक बुद्धि नहीं चाहिए. इसके लिए सिर्फ दो चीजों- उत्साह और कड़ी मेहनत-की आवश्यकता होती है. नरेंद्र मोदी द्वारा इस वर्ष के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पहुंचाये गये भारी राजनीतिक नुकसान […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 24, 2014 4:30 AM

।। आकार पटेल ।।

वरिष्ठ पत्रकार

भारतीय राजनीति में नेतृत्व करने के लिए सिद्धांतों की कम जरूरत होती है और उसके लिए बहुत अधिक बुद्धि नहीं चाहिए. इसके लिए सिर्फ दो चीजों- उत्साह और कड़ी मेहनत-की आवश्यकता होती है.

नरेंद्र मोदी द्वारा इस वर्ष के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पहुंचाये गये भारी राजनीतिक नुकसान को क्या पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी समझ पाये हैं? अगर हां, तो कांग्रेस के इस ‘युवा राजकुमार’ के क्रियाकलापों में इस बात के कोई संकेत देख पाना कठिन है.

अब जब असुरक्षा, असंतोष और छोटे-मोटे विद्रोहों से कांग्रेस पीड़ित है, तो इसके नेता कहां हैं? दूसरी ओर, अपनी पार्टी (भारतीय जनता पार्टी) पर नरेंद्र मोदी की लौह-पकड़ से दोनों पार्टियों के नेताओं के कार्यकलाप के बीच का यह अंतर अधिक स्पष्टता के साथ दिख रहा है. हाल में सामने आ रही रिपोर्टो के अनुसार राहुल गांधी यूरोप में अपनी बहन प्रियंका गांधी और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ छुट्टियां मना रहे थे.

इस बात से बहुत-से लोगों को आश्चर्य हो सकता है, क्योंकि विपक्ष में होने और चर्चा के केंद्र से दूर रहने के बावजूद कांग्रेस पार्टी को भीतर और बाहर से आलोचना व निंदा झे लनी पड़ रही है. लेकिन, हम ऐसे व्यक्ति से आखिर क्या उम्मीद कर सकते हैं, जो अपनी पार्टी के इतिहास के सबसे बुरे चुनावी प्रदर्शन के बाद बाली (इंडोनेशिया) में आराम करने चला गया हो!

इस बरबादी से कांग्रेस के जो नेता और कार्यकर्ता अचंभित और अवाक हैं, उनके लिए हालात दिन-ब-दिन और चिंताजनक होते जा रहे हैं. इस वर्ष होनेवाले महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव इस तथ्य को और पुष्ट करेंगे कि यह पार्टी अब एक अपरिवर्तनीय पतन की गर्त में है. अपरिवर्तनीय इसलिए नहीं कि यह पार्टी की किस्मत है, बल्कि यह इसलिए कि इस पतन के सुधार की कोई गंभीर कोशिश नहीं हो रही है.

समूचे पश्चिमी और उत्तर भारत में कांग्रेस पार्टी अब स्थायी विपक्ष की भूमिका तक सिमट कर रह गयी है. इसने पिछले तीस वर्षो में गुजरात में एक भी चुनाव नहीं जीता है (आखिरी बार राजीव गांधी के समय 1984-85 में पार्टी विजयी हुई थी). मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में यही स्थिति है, जहां मौजूदा कार्यकाल की समाप्ति तक उसके हार के पंद्रह वर्ष हो जायेंगे.

बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे देश के बड़े राज्यों में कांग्रेस पार्टी की कोई राजनीतिक प्रासंगिकता नहीं बची है. इन दोनों प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी ने स्वयं को बहुत ही असरदार तरीके से राजनीतिक मंच पर उभारा है. तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस भाजपा से भी पीछे हो गयी है.

उल्लेखनीय है कि इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का कोई विशेष राजनीतिक अस्तित्व पहले नहीं रहा है. महाराष्ट्र, जहां कांग्रेस पार्टी देश के लोकतांत्रिक चुनावी इतिहास में बस एक बार पराजित हुई है, में भी इस वर्ष होनेवाले विधानसभा चुनाव में उसकी जोरदार पराजय सुनिश्चित है. कांग्रेस का यही चुनावी हाल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में भी होना तय है.

कांग्रेस के लिए यह राजनीतिक संकट देशव्यापी है और पार्टी के फिर से उभार के लिए एक दशक की लगातार व सोची-समझी कड़ी मेहनत की आवश्यकता है. लेकिन, जैसा कि मैंने पहले कहा, क्या कहीं इस बात के संकेत हैं कि राहुल गांधी राजनीतिक उभार की कोशिश के इस काम में लगे हुए हैं?

कई सप्ताह से राहुल गांधी यह मांग कर रहे हैं कि लोकसभा में कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल की मान्यता मिलनी चाहिए. आखिर यह मान्यता उन्हें क्यों चाहिए? मैं यह बात समझ नहीं पा रहा हूं.

कांग्रेस सदन में विपक्ष के नेता का यह पद लेकर क्या करेगी? राहुल गांधी की राजनीति और पार्टी के कामकाज में बहुत कम दिलचस्पी (संसद में उनकी उपस्थिति उनकी दिलचस्पी के कम होने का बहुत अच्छा सूचक है) को देखते हुए इस मांग को प्रक्रियात्मक मांग के अलावा और कुछ और नहीं माना जा सकता है. अगर मोदी इस मांग के आगे झुक भी जाते हैं (जो कि सोच से भी परे है) और कांग्रेस को यह पूरी तरह से रस्मी पद उपहार में दे भी देते हैं, तो भी इससे गांधी परिवार की मनोवृत्ति में कोई बदलाव नहीं होगा.

पिछले लोकसभा चुनाव में सैकड़ों कांग्रेसी उम्मीदवारों ने करोड़ों रुपये खर्च किये और हार गये. इनमें से कइयों की जमानत भी नहीं बच सकी. ये लोग, जो गंभीरता से राजनीति में निवेश करते हैं और यह इनके लिए तफरीह का सामान नहीं है, अपनी पार्टी के नेतृत्व से बहुत नाराज होंगे.

वे सोच रहे होंगे कि क्या एक पराजित प्रयास के लिए इतना खर्च करना उचित है. उन्हें यह भरोसा दिलाना होगा कि कांग्रेस का पुन: उभार हो सकता है और इसके लिए कोशिशें हो रही हैं. उन लोगों तक यह संकेत सिर्फ राहुल गांधी की ओर से ही जा सकता है, पर हमें ऐसा होने का कोई भी संकेत नहीं दिख रहा है.

भारतीय राजनीति में नेतृत्व करने के लिए सिद्धांतों की कम जरूरत होती है और उसके लिए बहुत अधिक बुद्धि नहीं चाहिए. इसके लिए सिर्फ दो चीजों- उत्साह और कड़ी मेहनत- की आवश्यकता होती है.

राहुल गांधी ने कोई उत्साह और काम करने की इच्छा का प्रदर्शन नहीं किया है. मैंने यह बात इस सप्ताह टेलीविजन पर एक बहस में कही, तो उसमें भाग ले रहे कांग्रेस प्रवक्ता इस बात से नाराज और आहत हो गये. उन्होंने कहा कि राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान बड़ी संख्या में सभाओं को संबोधित किया (मानो ऐसा करके वे अपनी पार्टी पर कोई एहसान कर रहे थे).

शायद गांधी ने ऐसा किया, लेकिन फिर भी उन सभाओं की संख्या नरेंद्र मोदी द्वारा संबोधित रैलियों की तुलना में आधी ही है.

ऐसा कोई प्रतिभासंपन्न विचार या जादू की छड़ी नहीं है, जिसकी वजह से नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव को भारी बहुमत से जीत गये. निष्पक्ष और विश्वसनीय बौद्धिकों द्वारा ‘गुजरात मॉडल’ की आलोचना पूरे चुनाव-अभियान के दौरान होती रही. यह तो नरेंद्र मोदी की दृढ़ता, पक्का इरादा और उनका अथक परिश्रम ही था, जिनकी वजह से वे सफल हो सके.

नरेंद्र मोदी लोकसबा चुनाव में इस तरह लड़े, मानो उनका कुछ दावं पर लगा हुआ है, लेकिन गांधी परिवार के साथ यह बात नहीं थी. वे हार से पूरी तरह संतुष्ट नजर आ रहे हैं.

उनके व्यवहार से मुझे परवर्ती मुगल याद आते हैं, जो अपने हाथियों को बेच कर खुश थे और जीर्ण-शीर्ण महल में रहने और बड़ी-बड़ी पदवियों को बरकरार रखने के एवज में परिवार की चांदी बेचते रहे.

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