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नक्सलियों की दिशाहीन राजनीति

नक्सलियों ने राजधानी एक्सप्रेस को फिर निशाना बनाने की कोशिश की. गनीमत थी कि पायलट इंजन चपेट में आ गया और ट्रेन बाल-बाल बच गयी. औरंगाबाद में पुलिस फायरिंग के विरोध में बंद के दौरान नक्सलियों द्वारा गया में रेल पटरी उड़ाना, उनकी राजनीति पर गंभीर सवाल खड़े करता है. नक्सली आखिर ट्रेनों, सार्वजनिक भवनों […]

नक्सलियों ने राजधानी एक्सप्रेस को फिर निशाना बनाने की कोशिश की. गनीमत थी कि पायलट इंजन चपेट में आ गया और ट्रेन बाल-बाल बच गयी. औरंगाबाद में पुलिस फायरिंग के विरोध में बंद के दौरान नक्सलियों द्वारा गया में रेल पटरी उड़ाना, उनकी राजनीति पर गंभीर सवाल खड़े करता है.

नक्सली आखिर ट्रेनों, सार्वजनिक भवनों और स्कूल भवनों को क्षतिग्रस्त कर क्या संदेश देना चाहते हैं? अगर उनकी लड़ाई व्यवस्था से है तो क्या उनकी नजर में ट्रेन यात्री उस व्यवस्था की धुरी हैं? यह समझना मुश्किल है कि आम लोगों को भयभीत कर नक्सली कौन सी क्रांति करना चाहते हैं.

पिछले कई दशक से वे इस प्रकार की कार्रवाइयां करते रहे हैं. अब समय आ गया है कि वे इन कार्रवाइयों का मूल्यांकन करें. उन्हें विचार करने की जरूरत है कि उनकी लड़ाइयों, उनके हमलों का शिकार वास्तव में कौन हो रहा है. आम आदमी की राजनीति करने का दावा करने वाली हथियारबंद लड़ाई कहां पहुंच गयी है? यह सही है कि सामाजिक स्तर पर कई समस्याएं कायम हैं.

व्यवस्था के अपने अंतर्विरोध हैं जिनकी चक्की में आम आदमी पिस रहा है. पुलिस की भूमिका ऐसी नहीं बन सकी है जिस पर लोग सहज से विश्वास कर सकें. वह प्रभावशाली लोगों के दबाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकी है. गरीब और उत्पीड़ित समुदाय के लोगों के लिए सामाजिक स्तर पर भी कई तरह की विषमताएं मौजूद हैं. पर इन विडंबनापूर्ण हालात और क्रांति के नाम पर निदरेष लोगों को निशाना बनाना जिम्मेदार राजनीति नहीं कही जा सकती. ऐसी राजनीति से संशयपूर्ण माहौल और अराजकता को ही बढ़ावा मिलेगा.

ऐसी स्थितियों में आम लोगों पर ही दोहरी मार पड़ती है. ऐसी लड़ाइयों के दौरान मिले अनुभव तो यही कहते हैं. पुलिस ऑपरेशन के दौरान गरीब लोगों को पकड़ा जाता है और इस तरह उनका जीवन कोर्ट-कचहरी के चक्कर में बरबाद हो जाता है. ऐसे में जरूरी है कि प्रतिरोध की राजनीति को जनगोलबंदी के जरिये मजबूत किया जाये.

बदलाव की पहली और बुनियादी शर्त है कि उस प्रक्रिया में जन समुदाय की सक्रिय भागीदारी भी हो. इसके बगैर कोई प्रतिरोध ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सकता क्योंकि बदलाव की मंजिल का कोई शॉर्टकट नहीं होता.

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