चिंताजनक आर्थिक संकेत

प्रमुख रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था एक नये अस्थिर चरण में प्रवेश कर रही है. अंतरराष्ट्रीय बाजार की उथल-पुथल, व्यापार युद्धों, शुल्कों को लेकर खींचतान तथा कुछ क्षेत्रों में राजनीतिक संकट को देखते हुए विशेषज्ञों समेत वित्तीय संस्थाएं भी पिछले कुछ समय से ऐसी चिंता जाहिर कर रही […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 31, 2019 5:54 AM
प्रमुख रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था एक नये अस्थिर चरण में प्रवेश कर रही है. अंतरराष्ट्रीय बाजार की उथल-पुथल, व्यापार युद्धों, शुल्कों को लेकर खींचतान तथा कुछ क्षेत्रों में राजनीतिक संकट को देखते हुए विशेषज्ञों समेत वित्तीय संस्थाएं भी पिछले कुछ समय से ऐसी चिंता जाहिर कर रही हैं.
जाहिर है कि इसके प्रभाव से भारत अछूता नहीं है. गवर्नर दास ने यह भी कहा है कि मौजूदा आर्थिक नरमी की अवधि के बारे में कहना मुश्किल है, पर भारत अधिकतर बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से बेहतर स्थिति में है. लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि चुनौतियां गंभीर नहीं हैं. सेवा क्षेत्र से लेकर मैनुफैक्चरिंग तक रफ्तार धीमी है तथा निर्यात में कमी हो रही है. जून में पिछले साल की तुलना में करीब 10 फीसदी निर्यात कम हुआ है.
यह गिरावट जनवरी, 2016 के बाद सबसे ज्यादा है. निर्यात का सीधा संबंध मैनुफैक्चरिंग और रोजगार बढ़ने से है. बैंकों की दशा में सुधार के बावजूद कर्ज की मांग बढ़ नहीं पा रही है. यही हाल वाहनों और उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार में है. वाहन उद्योग ने आशंका जाहिर की है कि अगर जल्दी ही हालात नहीं बदले या सरकार ने राहत मुहैया कराने के बंदोबस्त नहीं किया, तो बड़े पैमाने पर छंटनी की परिस्थिति पैदा हो सकती है.
उद्योग जगत को उम्मीद थी कि अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए बजट में उत्प्रेरकों की घोषणा होगी, पर ऐसा नहीं हो सका. शेयर बाजार में भी निराशा का दौर है और निवेश में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं हो रही है. इन संकेतों के संदर्भ में यह भी गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से सुधार की पहलकदमी तथा बैंकों की खराब सेहत के कारण वित्तीय उपलब्धता में समस्याएं थीं, जिनके परिणाम हमें आर्थिक चिंताओं के रूप में दिख रहे हैं.
रिपोर्टों की मानें, तो इन चिंताओं और इनके गहराने की आशंकाओं से जूझने के लिए उद्योग जगत ने खर्च कम करने एवं प्रबंधन व उत्पादन प्रक्रिया को दुरुस्त करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं. भर्ती और विस्तार की कवायदों को भी सीमित किया जा रहा है, लेकिन साल 2008 के बाद, एक दशक के तीव्र विकास के बाद नरमी आना अस्वाभाविक भी नहीं है.
इस अवसर का लाभ उठा कर कंपनियां अपने तंत्र को भी चुस्त बना सकती हैं. वित्तीय घाटे को कम करने, बैंकों को पूंजी मुहैया कराने और बैंकों पर फंसे कर्जों का दबाव कम होने से अब उम्मीद की सूरत भी नजर आ रही है. वित्त सचिव का तबादला करने और पूंजी जुटाने की कोशिशों से इंगित होता है कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर मौजूद चुनौतियों का सामना करने में जुटी हुई है.
अगर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंकों के सुझावों पर अमल होता है, तो वैश्विक अर्थव्यवस्था की बढ़त के साथ वित्तीय स्थायित्व को हासिल किया जा सकता है. उभरती अर्थव्यवस्थाओं में अब भी सबसे तेज दर से वृद्धि कर रहे भारत को भी इससे फायदा होगा और अपनी नीतियों को अमली जामा पहनाने में मदद मिलेगी.

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