डॉ अश्वनी महाजन
एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू
ashwanimahajan@rediffmail.com
जानकारों की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि 15वां वित्त आयोग क्या सिफारिशें देगा. सरकारी खर्च के तमाम अनुमान भी इन सिफारिशों पर निर्भर करेंगे. जब 2015 से 2020 के पांच वर्षों के लिए केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों के बंटवारे को लेकर 14वें वित्त आयोग को लागू किया गया, तब वह एक बड़ा बदलाव था.
गौरतलब है कि 2015 से पहले केंद्र द्वारा लगाये जानेवाले तमाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों का मात्र 32 प्रतिशत ही राज्यों को मिलता था, लेकिन 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार 2015 से 2020 के बीच राज्यों का हिस्सा बढ़ा कर 42 प्रतिशत कर दिया गया. साथ ही राज्यों द्वारा चलायी जा रही केंद्रीय योजनाओं की संख्या में भी कमी कर दी गयी.
दरअसल, राज्यों की यह शिकायत थी कि केंद्र द्वारा चलायी जा रही योजनाओं का उन्हें कोई खास फायदा नहीं पहुंचता और इसलिए उन्हें अपने राज्यों की आवश्यकता के अनुसार इन योजनाओं को चलाने के लिए स्वतंत्रता होनी चाहिए, यानी एक तरफ केंद्र द्वारा राज्यों को योजनाओं हेतु दी जानेवाली मद को कम किया गया, वहीं दूसरी ओर राज्यों को केंद्रीय करों में ज्यादा हिस्सा मिलने लगा और इस प्रकार राज्यों के पास पहले से ज्यादा विकल्प खुलने लगे.
पंद्रहवां वित्त आयोग अपनी सिफारिशों को अंतिम रूप देने में लगा है, उस पर राज्यों का यह दबाव है कि उन्हें ज्यादा हिस्सा मिले. हालांकि, कुछ अर्थशास्त्री राज्यों की करो में ज्यादा हिस्से की मांग को यह कह कर सही मानते हैं कि केंद्र सरकार अपने राजनीतिक लाभ हेतु इन कल्याणकारी कार्यक्रमों को चलाती है और इसका राजनीतिक लाभ भी उठाती है.
लेकिन इन अर्थशास्त्रियों का यह तर्क उचित नहीं लगता, क्योंकि हमें समझना होगा कि केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, सभी का उद्देश्य जनता का कल्याण होता है. यदि केंद्र सरकार सुसंगत तरीके से कार्यक्रम लेती है, तो उससे लोगों की हालत में सुधार होती है.
हालांकि, अधिकांशतः देखा गया है कि जब से राज्यों को केंद्र से ज्यादा हिस्सा मिलना शुरू हुआ है, तब से उनके द्वारा वास्तविक सामाजिक कल्याण योजनाएं घटी हैं और लोकलुभावन योजनाओं में खासी वृद्धि हुई है. कई राज्य सरकारों ने लोकलुभावन कर्ज माफी आदि कई फैसले लिये हैं. देखना होगा कि केंद्र सरकार द्वारा लगाये जा रहे उपकर और अधिभारों के माध्यम से कई लोककल्याणकारी योजनाओं में वृद्धि हुई है.
गौरतलब है कि राज्यों की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा बिक्री कर, रजिस्ट्रेशन शुल्क और उत्पाद शुल्क से आता रहा है. अभी राज्यों के अधिकांश अप्रत्यक्ष कर जीएसटी (वस्तु सेवा कर) में विलीन हो गये हैं.
हालांकि, पिछले दो वर्षों में अधिकांश राज्यों को न केवल जीएसटी में पूर्व के करों से ज्यादा प्राप्ति हुई है, उनमें 14 प्रतिशत वार्षिक से ज्यादा वृद्धि भी दर्ज हुई है, इसलिए जीएसटी के कारण होनेवाले नुकसान की भरपाई अब केंद्र सरकार को करने की कोई जरूरत भी नहीं है. जीएसटी एक कर सुधार के नाते लागू तो किया गया, लेकिन इसका वास्तविक खामियाजा केंद्र सरकार को ही भुगतना पड़ा है.
राजनीतिक दृष्टि से सभी पक्षों को खुश रखने और जीएसटी को लोकप्रिय बनाने के लिए जीएसटी की दर को कम रखा गया. इसका असर यह हुआ कि पूर्व में लगनेवाले करों की तुलना में केंद्र सरकार का राजस्व बहुत नहीं बढ़ पाया, और कई स्थितियों में कम भी हुआ. रोचक बात यह है कि राज्यों को जीएसटी के लिए राजी करने के लिए केंद्र सरकार ने उन्हें यह गारंटी भी दी कि यदि उनका राजस्व कम होगा, तो उसकी भरपाई केंद्र सरकार करेगी.
जहां केंद्र के पास राजस्व जुटाने के बहुत से साधन है, वहीं राज्यों की जिम्मेदारियों के अनुपात में उनके पास संसाधन कम है. गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से केंद्र सरकार अपने अंतर्गत चलनेवाले सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश कर संसाधन जुटा रही है, जबकि राज्यों के पास एक ओर तो यह विकल्प नहीं है, दूसरी ओर राज्य सरकारें अपने अंतर्गत चलनेवाले विद्युत बोर्डों के नुकसानों की भरपाई तो कर ही रही हैं.
एक प्रकार के पूंजीगत खर्चों को भी उन्हें वहन करना पड़ता है. ऐसे में राज्य केंद्रीय करों में ज्यादा हिस्सा चाहते हैं. लेकिन हमें समझना होगा कि यदि राज्य सरकारें वित्तीय बोझ से ग्रस्त हैं, तो केंद्र सरकार भी बहुत अच्छी वित्तीय स्थिति में नहीं है. केंद्र सरकार को अपने जरूरी खर्च चलाने के लिए ही कठिनाई हो रही है और अब उस खर्च की भरपाई के लिए विदेशों से भी ऋण लेने की योजना बना रही है. इसलिए राज्यों द्वारा केंद्रीय करों में पहले से ज्यादा हिस्से की उम्मीद सही नहीं है.
गौरतलब है कि केंद्र सरकार वित्त आयोग को संदर्भ के रूप में शर्तें देती है. अन्य विवादास्पद शर्त के अतिरिक्त एक शर्त यह लगायी गयी थी कि 15वां वित्त आयोग जनसंख्या गणना के 2011 के अनुमानों का उपयोग करेगा.
देखना होगा कि अभी तक 1971 की जनगणना के आंकड़े ही इस्तेमाल किये जाते रहे हैं. ऐसे में दक्षिण के राज्य चिंतित हैं कि अब नये आंकड़ों के अनुसार उत्तर भारत की जनसंख्या ज्यादा होने के कारण उनका हिस्सा केंद्रीय करों में कम हो जायेगा, इसलिए वे शर्तों में इस बदलाव को नहीं होने देना चाहते हैं.
हमेशा की तरह इस बार भी वित्त आयोग द्वारा केंद्र और राज्यों के बीच और साथ ही साथ विभिन्न राज्यों के बीच संसाधनों का बंटवारा कोई आसान काम नहीं होगा. आशा करनी चाहिए कि एनके सिंह की अध्यक्षता में पंद्रहवां वित्त आयोग केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाये रखते हुए अपनी सिफारिशें देगा.