हिंदी भाषा में खत्म होती जा रही है विनयशीलता
आपने अपने फेसबुक पर जो स्टेटस लिखा, उसमें कोई दुराव-छिपाव नहीं है. हिंदी एक विनयशील भाषा है. लिखने से क्या होगा, जब कोई उसे पढ़ेगा ही नहीं और पढ़ेगा नहीं तो विनयशीलता कहां से आयेगी? विवि व महाविद्यालयों में हिंदी की दुर्दशा छिपी नहीं है. हिंदी में जितने भी शोध प्रबंध आ रहे हैं, वे […]
आपने अपने फेसबुक पर जो स्टेटस लिखा, उसमें कोई दुराव-छिपाव नहीं है. हिंदी एक विनयशील भाषा है. लिखने से क्या होगा, जब कोई उसे पढ़ेगा ही नहीं और पढ़ेगा नहीं तो विनयशीलता कहां से आयेगी? विवि व महाविद्यालयों में हिंदी की दुर्दशा छिपी नहीं है. हिंदी में जितने भी शोध प्रबंध आ रहे हैं, वे पुराने शोधों का उल्था है.
तुलसी, निराला, प्रेमचंद और मुक्तिबोध को पढ़ने और जानने वाले बहुत कम लोग हैं. आज हिंदी की हालत ऐसी हो गयी है, न पांव, न सिर है, न सिर पर कोई पाग है, ऐसे ही हिंदी की दुनिया में मच रहा फाग है. डबराल जी ने अपने फेसबुक स्टेटस लिखकर उसी कलई को नोचने का प्रयास किया है. आज हिंदी भाषा की विनयशीलता को खत्म किया जा रहा है.
रामानुज चौधरी, तेयाय, तेघड़ा (बेगूसराय)