जरूरी था तीन तलाक का खात्मा

भूपेंद्र यादव भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री और राज्यसभा सदस्य bhupenderyadav69@gmail.com तीन तलाक जैसी असंवैधानिक और अमानवीय कुप्रथा अब अतीत हो चुकी है. संसद से पारित होने और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद मुस्लिम समाज में व्याप्त यह अमानवीय प्रथा अब अपराध की श्रेणी में आ चुकी है. बीते 31 जुलाई की सुबह महिलाओं के सम्मान […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 5, 2019 7:32 AM
भूपेंद्र यादव
भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री और राज्यसभा सदस्य
bhupenderyadav69@gmail.com
तीन तलाक जैसी असंवैधानिक और अमानवीय कुप्रथा अब अतीत हो चुकी है. संसद से पारित होने और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद मुस्लिम समाज में व्याप्त यह अमानवीय प्रथा अब अपराध की श्रेणी में आ चुकी है.
बीते 31 जुलाई की सुबह महिलाओं के सम्मान और गरिमापूर्ण जीवन के लिए एक नये अध्याय की शुरुआत के रूप में इतिहास में दर्ज हुई है. आज हमारे पास एक ऐसा कानून है, जो इस तथ्य पर विचार करने के बाद बना है कि समाज के विकसित होने के साथ ही मुस्लिम पर्सनल लॉ भी आधुनिक हो रहा है. एक लंबी लड़ाई के बाद मिली इस जीत के लिए मुस्लिम समाज की बहनें भी बधाई के योग्य हैं. तीन तलाक की अनुचित प्रथा के उन्मूलन से उन्हें असुरक्षा और अनिश्चित भविष्य से मुक्ति मिली है.
यह निर्विवाद है कि इस लड़ाई की शुरुआत एक साधारण मुस्लिम महिला द्वारा न्याय की आस में हुई थी, लेकिन इस लड़ाई के मायने केवल किसी एक महिला के व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करनेवाले नहीं हैं.
यह लड़ाई उस त्रासद पूर्ण स्थिति से निकलने की जद्दोजहद की तरह थी, जो किसी महिला के आत्मसम्मान और गरिमा को न जाने कितनी बार तार-तार करती रही. यह सवाल गंभीर था कि एक सभ्य समाज में किसी भी महिला को ऐसी किसी भी पीड़ा के दौर से गुजरने के लिए मजबूर क्यों किया जाना चाहिए! तीन तलाक को अपराध घोषित करने के लिए कानून लागू करना एक सभ्य और प्रगतिशील समाज की जीत है. इस पर नकारात्मक राजनीति नहीं होनी चाहिए.
ऐसी कुप्रथाओं को संरक्षण देकर हम एक सभ्य और विकासोन्मुख समाज की कल्पना नहीं कर सकते. इसका विरोध करनेवालों के प्रति आश्चर्य होता है कि भला कैसे कोई इस प्रगतिशील दृष्टिकोण वाले कानून का विरोध कर सकता है!
संसद में तीन तलाक मुद्दे पर चर्चा के दौरान एक सवाल कांग्रेस सहित कुछ अन्य दलों ने उठाया था. विपक्षी दलों द्वारा इस विषय के विरोध में मुस्लिमों को निशाना बनाने और सिविल लॉ को क्रिमिनल लॉ में तब्दील करने का निराधार आरोप चस्पा करने का प्रयास किया गया, जो तथ्यों की कसौटी पर सही नहीं हैं. हमें इतिहास के अनेक ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, जो सभी धर्मों में सुधारों के लिए प्रोत्साहित करनेवाले हैं.
मसलन, भारतीय ईसाई अधिनियम 1872 की धारा 66 में भी यदि कोई गलत दस्तावेज देता है, तो भारतीय दंड संहिता की धारा 93 के तहत तीन साल की सजा का प्रावधान है. विशेष विवाह कानून 1954 में शादीशुदा व्यक्ति अगर दो शादियां करता है, तो आइपीसी में उसके लिए भी सजा का प्रावधान है. पारसी मैरिज एंड डायवोर्स एक्ट में भी दो विवाह पर सजा की व्यवस्था है.
प्राचीन समय से बहुविवाह की अनुमति हिंदुओं के बीच थी, लेकिन 1860 में भारतीय दंड संहिता ने ‘बहुविवाह’ को एक आपराधिक कृत्य बना दिया.
हिंदू विवाह अधिनियम, जिसे वर्ष 1955 में पारित किया गया था, जो वैध हिंदू विवाह के लिए शर्तें निर्धारित करता है और यह शर्त रखी गयी कि विवाह के समय वैवाहिक गठबंधन के किसी भी पक्ष का जीवित जीवनसाथी नहीं होना चाहिए. इसलिए यह स्पष्ट है कि हिंदुओं के बीच बहुविवाह की प्रथा को कानूनन केवल समाप्त नहीं किया गया था, बल्कि इसे दंडनीय भी बनाया गया था. इसलिए तीन तलाक जैसे मामले को आपराधिक कृत्य घोषित करना कोई पहली घटना नहीं है, जब भारत में लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए विधान निजी कानून में दखल दे रहा है. अत: यह कहना कि इसे सिर्फ मुस्लिम समाज को निशाना बनाया जा रहा, सरासर गलत है.
तलाकशुदा महिला के मुआवजे और उसके भरण-पोषण से जुड़े प्रावधानों को लेकर एक प्रश्न उठाया गया. मेरा सवाल यह है कि सत्तर से अधिक उम्र में अपने पति द्वारा तलाक पाने वाली शाह बानो जैसी महिला के लिए कितना मुआवजा उचित हो सकता है? अगर पति जेल में न भी हो, तो भी कौन ऐसी महिलाओं का भरण-पोषण कर सकता है? मेरा मानना है कि किसी अमानवीय अापराधिक कृत्य का बचाव इस तरह के आधारहीन तर्कों से करना उचित नहीं है. इसलिए इसे अपराध घोषित करने के उद्देश्य से कानून बनाने के लिए सरकार सराहना के योग्य है.
तीन तलाक के मुद्दे को दो व्यक्तियों के बीच विवाद से परे जाकर संविधान में दिये गये निर्देशों के आलोक में देखना होगा. इसे दंडनीय अपराध घोषित करने का उद्देश्य एक ऐसा प्रभावी कानून बनाना था, जो महिलाओं को इस सदियों पुराने भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा प्रदान कर सके और उन्हें सम्मान के साथ जीने का अधिकार दे सके.
जब सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि तीन तलाक धार्मिक स्वतंत्रता के तहत संरक्षित नहीं है और यह महिलाओं की गरिमा के खिलाफ है, तो हम संवैधानिक नैतिकता को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं. लैंगिक न्याय एक महत्वपूर्ण संवैधानिक लक्ष्य है और इसे पूरा किये बिना, देश की आधी आबादी अपने अधिकारों को हासिल नहीं कर पायेगी.
वर्तमान सरकार महिलाओं की समानता को उसकी मूल भावना के रूप में सुनिश्चित करने के लिए सराहना की पात्र है, क्योंकि पवित्र कुरान में जो बुरा माना जाता है, वह शरीयत में अच्छा नहीं हो सकता है. यानी धर्मशास्त्र में जो बुरा है, वह कानून में भी बुरा है. मुस्लिम बहनों को अतीत की बुराई से बाहर निकालने के लिए नये युग को कानून की जरूरत थी, जिसे मोदी सरकार ने पूरी प्रतिबद्धता से पूरा किया है.

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