-सीसैट पर पढेंं राजनीतिक विश्लेषक पुष्पेश पंत का विशेष आलेख-
‘सी-सैट’ को तत्काल खत्म किया जाना चाहिए.. आज हमारे युवा मित्र सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए मुखर नहीं हो रहे- वे आजाद जनतांत्रिक भारत में समता, देशी भाषा तथा ईमानदारी के बारे में ऐसे तमाम गंभीर सवाल भी उठा रहे हैं, जो टाले नहीं जा सकते.
पिछले कई महीनों से यूपीएससी और सिविल सेवा परीक्षा के उम्मीदवार आमने-सामने हैं. अब विवाद का स्वरूप कुछ ज्यादा ही विस्फोटक हो रहा है. छात्र संसद का घेराव करने पर आमादा हैं और दिल्ली पुलिस अपनी आदत व ऊपरीआदेशों से मजबूर होकर लाठियां भांज अपना कर्तव्य निभा रही है. इस मुद्दे ने देशभर में एक बहस गरमा दी है, जिसे अनसुना करना कठिन होता जा रहा है. सारा झगड़ा ‘सी-सैट’ नामक उस पर्चे को ले कर है, जो प्रारंभिक परीक्षा में दूसरा प्रश्न पत्र है. पहले छात्रों को आपत्ति थी कि इसे अचानक लागू किया जा रहा है, अत: उन्हें तैयारी के लिए वक्त मिलना चाहिए. पिछली सरकार ने प्रतियोगियों को दो अतिरिक्त अवसरों की छूट दी थी. अब यह साफ होता जा रहा है कि यह व्यवस्था दूषित व धूर्ततापूर्ण ढंग से वंचित-देहाती/ कस्बाई प्रतियोगियों को स्पर्धा से बाहर रखने का षड्यंत्र है.
यह कहना सरासर बेमानी है कि यह विवाद हिंदी को दूसरों पर थोपने के हठ से उपजा है. आज के हिंदुस्तान में कोई भी युवा अपनी जिंदगी की बेहतरी के लिए अंगरेजी सीखने से परहेज नहीं करता. मां-बाप पेट काट कर घटिया ही सही, निजी स्कूलों में बच्चों का दाखिला करवाने को इसी लिए तरसते-लाइन लगाते हैं, क्योंकि व्यापक भरम यह है कि जिन स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम अंगरेजी है, वे आगे बढ़ने के मौके सुलभ कराते हैं. बीपीओ-कॉल सेंटर में काम करनेवाले लड़के-लड़कियां हों, दुकानों में सेल्समैन या दफ्तरों के सहायक, अपनी अंगरेजी सुधारने के लिए पसीने की कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च करते नहीं हिचकते.
‘अंगरेजी हटाओ’ वाले दिन लद गये. सच यह है कि यह साजिश सिर्फ हिंदी के खिलाफ नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के खिलाफ है. जो दक्षिण भारतीय या पूर्वोत्तरी बिरादर इस मुगालते में हैं कि उनकी अंगरेजी गोबरपट्टी वालों से बेहतर है, वे जाने किस गुजरे युग की यादों में खोये हैं! किसी परीक्षा में बेहतर अंगरेजी का फायदा सिर्फ उनको हो सकता है, जो बेहतर यानी महंगे निजी स्कूलों में पढ़े होते हैं- जिनके संपन्न घरों में अमूमन अंगरेजी बोली जाती है. बहरहाल यह सबसे बड़ी बाधा नहीं.
असली विवाद इस पर्चे के उस हिस्से को लेकर है, जिसमें गणित और उपयुक्त मानसिकता-रुझान अर्थात एप्टिट्यूड को परखा जाता है. निश्चय ही पर्चे का यह हिस्सा उन प्रतियोगियों के लिए आसान रहता है जो विज्ञान के छात्र हैं या प्रबंधन की पढ़ाई की तैयारी कर रहे हैं. कुतर्क यह है कि सेना हो या इंजीनियरिंग अथवा प्रबंधन, इस तरह के एप्टिट्यूड टेस्ट हर जगह काम लाये जाते हैं. प्रशासकीय परीक्षा इससे कब तक बची रह सकती है? आज शिक्षाविदों की ही नहीं, जिम्मेवार नागरिकों व अभिभावकों की चिंता इसी बात को लेकर है कि इस तरह के टेस्टों ने आइआइटी तथा पीएमटी तक की परीक्षाओं को मखौल बना दिया है. वह नैसर्गिक प्रतिभा या सामान्य ज्ञान की नहीं, रटाई व महंगी कोचिंग की उपयोगिता की कसौटी भर बन गये हैं. कोटा जैसे शहर विशेषज्ञ उस्तादों के कारण ही मशहूर हैं. अन्य शहरों-कस्बों में भी मेडिकल तथा इंजीनियरिंग में शर्तिया सफलता दिलाने का दावा करनेवाले प्रशिक्षक-उद्यमी-कुटीर उद्योग कुकुरमुत्ताें की पौध की तरह फैल चुके हैं. जब-जब पाठ्यक्रम बदलता है, यही मालामाल होते हैं. फिर इसमें क्या अचरज की बात है कि इस बार भी सी-सैट को इनका समर्थन मिल रहा है?
विडंबना यह है कि जो प्रतियोगी विज्ञान की पढ़ाई का लाभ उठाकर प्रारंभिक परीक्षा में मानविकी और समाज शास्त्र के परीक्षार्थियों को पछाड़ मुख्य परीक्षा तक पहुंचते हैं, वे इस मुकाबले में अपने पढ़े विषय को तज कर समाज शास्त्र व मानविकी के पर्चे चुनते हैं. यूपीएससी को यह कहने का मौका मिल जाता है कि ‘कहां कम हो रहे हैं समाजशास्त्रीय विषयों के विद्यार्थी?’. ऊपर से तुर्रा यह है कि नये नियमों के अनुसार अपनी मातृभाषा का एक विषय के रूप में विकल्प वही चुन सकता है, जिसने इसे विश्वविद्यालय में पढ़ा हो. यह समझ में नहीं आता कि फिर ऐसा ही सख्त अनुशासन डॉक्टरों-इंजीनियरों पर क्यों नहीं लागू किया जाता कि आइएएस की परीक्षा वह अपने पढ़े विषयों में ही दे सकते हैं?
जाहिर है, पाठ्यक्रम में बदलाव सोच-विचार के बाद नहीं, हड़बड़ी में अपने को भूमंडलीकरण के बाजारवादी दौर में समय के माफिक दिखालने के अदूरदर्शी उत्साह में एवं नौकरशाही के चिर परिचित खानापूर्ति वाले अंदाज में ही किया गया है. अगर मान लें कि आधुनिक प्रशासक में प्रबंध कौशल अनिवार्य है, तब तो सीधे आइआइएम जैसे संस्थानों के स्नातकों की नियुक्ति आला अफसरों के रूप में करने की व्यवस्था होनी चाहिए! जिस तरह की अराजकता और हिंसा पर जिलाधीशों को काबू पाने के लिए तत्पर रहना होता है, उसे देखते हुए तो सीधे सेना के अफसरों को भी विकट पदों पर नियुक्त-स्थानांतरित करने की बात सोची जा सकती है!
सबसे बड़ा सवाल यह है कि कब तक आला नौकरशाही में प्रवेश की इस लॉटरी सरीखी परीक्षा को हम यह मौका देंगे कि वह हमारी शिक्षा व्यवस्था की ऐसी-तैसी करने के साथ-साथ समाज में व्यापक भ्रष्टाचार को पनपाती रहे? अभी हाल में एक ऐसे ‘कलाकार’ आइएएस दंपति की बर्खास्तगी का समाचार पढ़ने को मिला, जिन्होंेने कुछ ही वर्षों में तीन सौ करोड़ से अधिक संपत्ति जमा कर ली थी! यह उदाहरण अपवाद नहीं. अपवाद तो दुर्गा नागपाल और खेमका जैसे अधिकारी हैं. यहां विस्तार से आला नौकरशाही के भ्रष्टाचार का बखान गैरजरूरी है, पर यह रेखांकित करना जरूरी है कि इस प्रतियोगिता में सफल होते ही वर-वधू का ‘विवाह बाजार भाव’ कितना बढ़ जाता है. यह बात भी न भूलें कि अपनी जाति-धर्म या इलाके के अधिकारी के साथ निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की परस्पर लाभदायक सांठ-गांठ हमारे जनतंत्र की सेहत के लिए कितनी खतरनाक साबित होती रही है.
हम यह बात बिना किसी लाग-लपेट के कहना चाहते हैं कि हम पूरी तरह छात्र-प्रतियोगियों की मांग का समर्थन करते हैं कि ‘सी-सैट’ को तत्काल खत्म किया जाना चाहिए. पर, हमारा अनुरोध है कि हमारे पाठक औपनिवेशिक दासता की मानसिकता से ग्रस्त भूरे साहब पैदा करनेवाली इस ‘प्रतियोगिता’ और इसके समतल मैदान के बारे में ठंडे दिमाग से, जरा व्यापक परिप्रेक्ष्य में सोचें. याद रहे, भारत की आजादी की लड़ाई के एक महत्वपूर्ण अध्याय- कांग्रेस पार्टी के जन्म- की शुरुआत आइसीएस की परीक्षा में सुधार के मुद्दे से हुई थी. आज हमारे युवा मित्र सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए मुखर नहीं हो रहे- वह आजाद जनतांत्रिक भारत में समता और देशी भाषा तथा ईमानदारी के बारे में ऐसे तमाम गंभीर सवाल भी उठा रहे हैं, जो टाले नहीं जा सकते.
पुष्पेश पंत
राजनीतिक विश्लेषक
pushpeshpant@gmail.com