सीपीआइ का पहला दलित महासचिव
कुर्बान अली वरिष्ठ पत्रकार qurban100@gmail.com भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआइ) के लगभग सौ वर्षों के इतिहास में पहली बार उसे एक दलित महासचिव मिला, जब विगत 21 जुलाई को दोराईसामी राजा सीपीआई के महासचिव बनाये गये. इसे एक इत्तेफाक कहा जाये या विचित्र संयोग कि समाजवाद, प्रोलेतेरियत (सर्वहारा) का अधिनायकवाद, लोकतंत्र और आजादी के बाद भारत […]
कुर्बान अली
वरिष्ठ पत्रकार
qurban100@gmail.com
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआइ) के लगभग सौ वर्षों के इतिहास में पहली बार उसे एक दलित महासचिव मिला, जब विगत 21 जुलाई को दोराईसामी राजा सीपीआई के महासचिव बनाये गये.
इसे एक इत्तेफाक कहा जाये या विचित्र संयोग कि समाजवाद, प्रोलेतेरियत (सर्वहारा) का अधिनायकवाद, लोकतंत्र और आजादी के बाद भारत के संविधान और सामाजिक न्याय का जाप करनेवाली सीपीआइ और ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा लगानेवाली सोशलिस्ट पार्टियों का प्रमुख (अध्यक्ष या महासचिव) कोई दलित, आदिवासी, महिला या मुसलमान नहीं हो सका. सीपीआइ अपनी स्थापना का वर्ष 1925 (कानपुर में 26-28, दिसंबर, 1925 को पार्टी का स्थापना सम्मलेन हुआ) बताती है. लेकिन भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआइ(एम) 17 अक्तूबर, 1920 को अपना स्थापना वर्ष बताती है, जब एमएन रॉय और उनके कुछ साथियों ने ताशकंद में सीपीआइ की स्थापना की थी.
इस तरह देखें, तो 1925 से लेकर 1964 तक (जब सीपीआइ में पहला विभाजन हुआ और दो कम्युनिस्ट पार्टियां बन गयीं) और तब से लेकर जुलाई 2019 तक दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों का महासचिव कोई दलित, आदिवासी, महिला या मुसलमान नहीं हो सका. गौरतलब है कि सीपीआइ और सीपीआइ(एम) के अधिकतर महासचिव सिर्फ ब्राह्मण ही रहे.
साल 1964 से आज तक जितने महासचिव (पार्टी सुप्रीमो) चुने गये या बनाये गये उनमें पी सुंदरैया, ईएमएस नम्बूदरीपाद, हरकिशन सिंह सुरजीत और सीताराम येचुरी में से सिर्फ हरकिशन सिंह सुरजीत को छोड़कर अधिकतर महासचिव सिर्फ ब्राह्मण ही रहे और कोई भी दलित, आदिवासी, महिला या मुसलमान पार्टी का महासचिव नहीं बन सका.
अब बात सामाजिक न्याय का दंभ भरने और हर वक्त ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा लगानेवाली महान सोशलिस्ट पार्टियों के नेतृत्व की. आचार्य नरेंद्र देव, संपूर्णानंद, जेपी, मीनू मसानी, ए पटवर्धन, लोहिया, अशोक मेहता, एसएम जोशी और एनजी गोरे, 1934 में कांग्रेस पार्टी के भीतर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य थे.
साल 1934 से लेकर 1950 तक यानी कांग्रेस पार्टी में रहने और उससे बाहर निकलने के दो वर्षों बाद तक (1948 में सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ) जयप्रकाश नारायण लगभग 16 वर्षों तक लगातार पार्टी के महासचिव बने रहे.
मार्च 1950 से लेकर सितंबर 1952 तक आचार्य नरेंद्र देव पार्टी अध्यक्ष और अशोक मेहता महासचिव हुए. सितंबर 1952 में सोशलिस्ट पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी का विलय होने के बाद जब प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ, तो आचार्य जेबी कृपलानी पार्टी अध्यक्ष और अशोक मेहता, और एनजी गोरे और बाद में जेबी कृपलानी के साथ राममनोहर लोहिया पार्टी महासचिव बनाये.
1954-55 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में विभाजन हो गया और 1956 में राममनोहर लोहिया ने अपनी अलग सोशलिस्ट पार्टी बना ली और तब से लेकर 1977 तक जब दोनों-तीनों सोशलिस्ट पार्टियों (बीच में कुछ अरसे के लिए प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी को मिलकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया) का जनता पार्टी में विलय होने तक, यानी 43 वर्षों की अवधि के दौरान सोशलिस्ट पार्टी और दलित, आदिवासी, महिला और मुसलमानों के हितैषी और हिमायती होने का दावा करनेवाले महान समाजवादी नेता लोग अपनी पार्टी का अध्यक्ष किसी दलित, आदिवासी, महिला या मुसलमान को नहीं बना सके.
अलबत्ता बिहार और उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने के मकसद से दो-एक बार (एक-दो साल के लिए) भूपेंद्र नारायण मंडल, कर्पूरी ठाकुर और रामसेवक यादव जैसे पिछड़ी जातियों के लोग सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष और महासचिव बनाये गये.
कम्युनिस्ट पार्टियों में काॅमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत और सोशलिस्ट पार्टियों में जॉर्ज फर्नांडीज को छोड़कर अल्पसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति कभी भी पार्टी के सर्वोच्च पद तक नहीं पहुंचा.
वामपंथी और समाजवादी दल तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनसंघ/भारतीय जनता पार्टी जैसे राष्ट्रीय दलों पर दशकों तक यह आरोप लगाते रहे कि ये दल सवर्णों और अगड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और इनमें दलित, आदिवासी, महिला या मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं है. यह भी सुना गया कि वामपंथी दलों में पीसी जोशी, बीटी रणदिवे, अजय घोष, श्रीपद अमृत डांगे, पी सुंदरैया, नम्बूदरीपाद, सी राजेश्वर राव, इंद्रजीत गुप्त और एबी बर्धन से बड़ा दलित कोई हो नहीं सकता.
यही तर्क समाजवादी नेताओं अशोक मेहता, एसएम जोशी, गंगाशरण सिन्हा, एनजी गोरे, नाथ पाई, मधु दंडवते तथा राजनारायण, मधु लिमये, मामा बालेश्वर दयाल, रवि राय और किशन पटनायक जैसे नेताओं के बारे में भी दिया जाता रहा है कि वे दलितों से भी बड़े दलित थे, लेकिन जब भागीदारी देने का सवाल आया तो दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और मुसलमानों सहित दूसरे अल्पसंख्यकों की भी अनदेखी की गयी और सरकार, संसद या विधानसभाओं में उन्हें प्रतिनिधित्व देना तो दूर, अपने दलों में भी उन्हें समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक कहावत है, जिसमें सास अपनी बहू से कहती है- ‘कोठी-कुठले से हाथ मत लगाइयो, बाकी घर-बार सब तेरा ही है!’ इन दलों पर यह कहावत चरितार्थ होती रही है.