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सीएसआर स्वैच्छिक हो

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org संभवतः भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां लाभप्रद कंपनियों के लिए अनिवार्य है कि वे अपने टैक्स चुकाने के बाद लाभ का दो प्रतिशत ‘कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारियों’ (सीएसआर) पर व्यय करें. यह प्रावधान वर्ष 2013 के नये कंपनी कानून के अंतर्गत आया, जिसने सत्तावन साल पुराने वर्ष 1956 […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 22, 2019 7:39 AM
अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
संभवतः भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां लाभप्रद कंपनियों के लिए अनिवार्य है कि वे अपने टैक्स चुकाने के बाद लाभ का दो प्रतिशत ‘कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारियों’ (सीएसआर) पर व्यय करें. यह प्रावधान वर्ष 2013 के नये कंपनी कानून के अंतर्गत आया, जिसने सत्तावन साल पुराने वर्ष 1956 के कंपनी कानून की जगह ली.
वर्ष 2013 में पारित इस नये कानून के द्वारा जहां कॉरपोरेट प्रशासन में मजबूती लायी गयी, वहीं कारोबारी सुगमता में भी वृद्धि की गयी. मगर, इसके द्वारा लागू सीएसआर व्यय की बाध्यता नितांत अनपेक्षित थी, जिसके द्वारा यह आवश्यक कर दिया गया कि वैसी सभी कंपनियां जिनका शुद्ध मूल्य (नेट वर्थ) या राजस्व या लाभ एक तयशुदा सीमा से अधिक हो, उन्हें अपने टैक्स चुकाने के बाद लाभ का दो प्रतिशत सीएसआर पर खर्च करना होगा. इस प्रावधान के साथ कई समस्याएं थीं.
पहली, कर भुगतान के बाद बचा लाभ पूरी तरह कंपनियों के स्वामियों, यानी उनके शेयरधारकों का होता है. इसलिए, कंपनी का प्रबंधन शेयर धारकों की स्पष्ट अनुमति के बगैर करोपरांत लाभ से कुछ भी व्यय नहीं कर सकता. दूसरी, दो प्रतिशत का बंधन वस्तुतः एक प्रकार का कर ही है, तो क्यों नहीं सीधा कॉरपोरेट आयकर में ही इजाफा कर इसे सरल बना दिया जाये? क्योंकि क्या यह कर भार में पिछले दरवाजे से वृद्धि करना नहीं है?
तीसरी, इस कानून के विनियमनों के द्वारा यह भी वर्णित है कि सीएसआर के अंतर्गत किस तरह के व्यय वैध अथवा अवैध हैं. जैसे, क्या इसके अंतर्गत कंपनी कर्मियों के कल्याण पर ज्यादा व्यय करने अथवा उनके कैफेटेरिया भत्ते में वृद्धि की अनुमति नहीं है. कंपनी कर्मियों की संतानों के लिए छात्रवृत्ति के प्रावधान की अनुमति भी नहीं है.
कुल मिलाकर, जब कुछ नौकरशाहों को ही यह तय करना हो कि सीएसआर के अंतर्गत क्या वैध अथवा अवैध होगा, तो नतीजे में मिले विवादों-विसंगतियों और उन पर मतभेद की स्थिति में होनेवाली मुकदमेबाजी की कल्पना सहज ही की जा सकती है.
चौथी, यह एक तरह से सरकार द्वारा इस बात को स्वीकार किया जाना है कि वह देश के पिछड़े क्षेत्रों तक विकास की धारा पहुंचाने के अपने कार्य में विफल रही है और इसी वजह से उसे इस कर जैसी बाध्यकारी रीति से कॉरपोरेटों को इस कार्य में भागीदार बनाया जा रहा है. अंत में, यह तर्क भी दिया जा सकता है कि किसी कारोबार का प्रयोजन कारोबार ही होता है.
उपभोक्ताओं की आवश्यकतानुसार उन्हें सामान एवं सेवाएं मुहैया कर, रोजगार सृजन कर, उत्पादक सामग्रियों, उत्पादित सामग्रियों तथा लाभ पर टैक्स चुकाकर और पर्यावरण एवं प्रदूषण समेत देश के विभिन्न कानूनों का अनुपालन कर कॉरपोरेट क्षेत्र समाज की खुशहाली एवं राष्ट्र-निर्माण में योगदान कर रहे हैं. तो फिर उन पर विकासात्मक व्यय भार वहन करने की अतिरिक्त बाध्यता क्यों थोपी जानी चाहिए?
संभवतः सीएसआर की बाध्यता का प्रावधान इसलिए किया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां यह कार्य करती ही रही हैं, जबकि उनकी निजी क्षेत्र बिरादरी इससे मुक्त थी. शायद सार्वजनिक उपक्रमों को और अधिक स्वयत्तता देकर उन्हें यह कहा जाना अधिक उपयुक्त होता कि वे अपने कारोबार को अधिक कुशलता से संचालित करें और उनके लाभ को सीधा सरकार द्वारा व्यय किया जाता. बहरहाल, ये सारी दलीलें मौन रहीं और कानून बन गया.
पहले सीएसआर बाध्यता प्रणाली के अंतर्गत कंपनियों को या तो उसका अनुपालन करना था अथवा अनुपालन न करने की वजह बतानी थी. यानी यह बाध्यकारी नहीं था और यदि कोई कंपनी विहित रकम खर्च नहीं कर सकी, तो उसे अपने वार्षिक प्रतिवेदन में उसकी वजह बतानी थी.
अब पांच वर्षों बाद सीएसआर से संबद्ध स्थिति इस प्रकार है कि इसी माह संसद ने पुराने कंपनी कानून को संशोधित करते हुए उसमें अन्य चीजों के अलावा ऐसे परिवर्तन कर दिये कि उसमें ‘अनुपालन करें या वजह बतायें’ से बदल कर ‘अनुपालन करें या जेल जायें’ की बाध्यता समाहित हो गयी.
इसका अनुपालन न करने पर कंपनी के वरीय पदाधिकारियों को जेल भी जाना पड़ सकता है. यह संशोधन संसद द्वारा सरकार के क्रूर बहुमत के बल पर जल्दबाजी में पारित कर दिया गया, जबकि स्वयं सरकार द्वारा नियुक्त एक समिति अभी इसका अध्ययन कर ही रही थी.
इस समिति ने अपनी रिपोर्ट तब सौंपी, जब यह संशोधन संसद में पारित हो चुका था, जबकि इस रिपोर्ट में कैद का यह आपराधिक पहलू समाप्त करने की अनुशंसा के साथ यह कहा गया कि अनुपालन न किये जाने पर कंपनी पर केवल जुर्माने की बाध्यता हो. मंत्रालय के मंत्री ने भी यह स्पष्ट किया कि यह प्रावधान लागू नहीं किया जायेगा, यानी इस संशोधन को भी शीघ्र ही संशोधित किया जायेगा.
प्रश्न यह है कि तब इस जल्दबाजी की क्या जरूरत आ पड़ी थी? समिति ने यह भी खुलासा किया कि तकरीबन आधी तादाद में कंपनियां इसका अनुपालन नहीं कर रही हैं. वर्तमान में लगभग 21 हजार अनुपालन योग्य कंपनियों में से केवल 11 हजार ने ही यह व्यय किया.
इस व्यय की कुल रकम मात्र 13 हजार करोड़ रुपये थी, जो इस वर्ष के केंद्र सरकार के बजट का केवल 0.4 प्रतिशत यानी सरकार द्वारा किये जानेवाले वार्षिक विकास व्यय का केवल दो से तीन प्रतिशत ही है. क्या इस स्वल्प रकम के व्यय का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए इतने सारे विनियमनों, जांच और नौकरशाही संबंधी कोशिशें और जटिलताएं उचित हैं?
यह सही है कि आधुनिक काॅरपोरेशनों को समाज में कार्य करने हेतु अपनी योग्यता प्रमाणित करनी चाहिए, क्योंकि वे सार्वजनिक निधि से निर्मित संसाधनों एवं प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं, पर्यावरण को हानि पहुंचाते हैं, कानून और व्यवस्था की स्थिरता से लाभान्वित होते हैं. पर व्यापक स्तर पर उन्हें समाज की सद्भावना भी जीतनी ही चाहिए. इसके अलावा अब हम ‘शेयरधारक पूंजीवाद’ से आगे बढ़कर ‘हितभागी पूंजीवाद’ पर पहुंच चुके हैं, जिनमें ग्राहक, कर्मी, वेंडर तथा आपूर्तिकर्ता, सरकार, विनियामकों समेत पूरा समाज ही शामिल है.
इसलिए एक बढ़ती दर से मुनाफा कमानेवाली कंपनियों को अपने शेयरधारकों के लिए संपदा के अर्थ में टिकाऊ मूल्य सहित सबके लिए सद्भावना हेतु बहुत कुछ अतिरिक्त करना ही पड़ेगा. पर इस प्रक्रिया में सीएसआर को सर्वथा निजी, स्वैच्छिक तथा व्यक्तिगत क्षेत्राधिकार में ही छोड़ देना उचित होगा.
(अनुवाद : विजय नंदन)

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