23.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

आर्थिक मंदी की तरफ देश!

योगेंद्र यादव अध्यक्ष, स्वराज इंडिया yyopinion@gmail.com क्या देश आर्थिक मंदी की तरफ बढ़ रहा है? इस सवाल को और टाला नहीं जा सकता. जहां एक ओर पूरा देश जम्मू और कश्मीर के सवाल पर उलझा हुआ है, वहीं अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे सरकती जा रही है. पहले जो छोटी समस्या दिखती थी, अब वह एक संकट का […]

योगेंद्र यादव
अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
yyopinion@gmail.com
क्या देश आर्थिक मंदी की तरफ बढ़ रहा है? इस सवाल को और टाला नहीं जा सकता. जहां एक ओर पूरा देश जम्मू और कश्मीर के सवाल पर उलझा हुआ है, वहीं अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे सरकती जा रही है. पहले जो छोटी समस्या दिखती थी, अब वह एक संकट का रूप लेती जा रही है.
हाल ही में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने देश को चेताया कि आर्थिक मंदी के लक्षण चिंताजनक हैं, इस पर जल्द ही कुछ करने की जरूरत है. गौरतलब है कि रघुराम राजन वह अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने पूरी दुनिया में 2008 की मंदी की समय रहते भविष्यवाणी करके ख्याति अर्जित की थी. इसलिए उनकी चेतावनी को ध्यान से सुनना चाहिए.
पिछले कुछ दिनों से अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों से बुरी खबर आ रही है. ऑटो उद्योग में मंदी और मजदूरों की छंटनी की खबर तो अब आम हो गयी है.
हालात इतने गंभीर हैं कि राहुल बजाज जैसे उद्योगपति को खुल कर कहना पड़ा कि अर्थव्यवस्था में मांग नहीं है और निवेश भी नहीं है, तो फिर विकास कहां से होगा. किसान संगठन और डेयरी उत्पादक भी अरसे से अपनी बदहाली का रोना रो रहे हैं. अब कपड़ा उत्पादकों ने विज्ञापन निकाला है कि कपड़ा क्षेत्र में हालत दिनों-दिन बदतर होती जा रही है. प्रॉपर्टी का धंधा कई साल से मंदा चल रहा है. नोटबंदी के समय से खुदरा व्यापारी भी अपना धंधा चौपट होने की शिकायत करते रहे हैं.
फिर भी लोगों की कही-सुनी पर भरोसा करने की बजाय वस्तुगत आंकड़ों के आधार पर अपनी राय बनानी चाहिए. हाल ही में कई आंकड़े आये, जो मंदी के डर की पुष्टि करते हैं. हर तीन महीने के बाद सरकार अर्थव्यवस्था के आंकड़े जारी करती है. पिछले नौ महीने से इन आंकड़ों के हिसाब से हमारी आर्थिक वृद्धि की दर कम होती जा रही है.
हमारी अर्थव्यवस्था जो कभी नौ प्रतिशत से 10 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही थी, वह अब 5.8 प्रतिशत की रफ्तार पर आ पहुंची है. पिछले 20 साल में ऐसा पहले सिर्फ दो बार हुआ है कि लगातार तीन तिमाही में वृद्धि दर गिरी हो. बेशक फिलहाल आर्थिक वृद्धि की सालाना दर में कमी आयी है, आर्थिक वृद्धि रुकी नहीं है या अर्थव्यवस्था का संकुचन शुरू नहीं हुआ, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए वृद्धि दर का बने रहना बेहद जरूरी है. इसलिए यह खबर चिंताजनक है.
अगर साल 2018 में जनवरी से मार्च की तिमाही और इस साल इन्हीं तीन महीनों की तुलना करें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लगभग सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था में मंदी आयी है. कार की बिक्री में पिछली बार 18 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी, इस बार 23 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है. स्कूटर और अन्य दोपहिया वाहनों में पिछली बार 16 प्रतिशत की बढ़ोतरी थी, तो इस बार 12 प्रतिशत की गिरावट हुई है.
दैनंदिन इस्तेमाल की उपभोक्ता माल की बिक्री में पिछली बार 12 प्रतिशत की बढ़ोतरी के मुकाबले में इस बार केवल 5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. सिगरेट और बिस्कुट के साथ-साथ अंडरवियर जैसे उपभोक्ता पदार्थों की खरीद में एकाएक कमी आ गयी है. डॉलर के मुकाबले में रुपये की कीमत गिर गयी है.
यही रुझान निवेश में देखा जा सकता है. पिछले साल पहली तिमाही में नये निवेश प्रोजेक्ट की राशि में 13 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, तो इस साल की पहली तिमाही में 80 प्रतिशत कमी आयी. मंदी का मुकाबला करने में सरकारी खर्च की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन उसमें भी कमजोरी आयी है. पिछले साल की पहली तिमाही में सरकार की टैक्स आय 22 प्रतिशत बढ़ी थी, वह इस साल मात्र 1.5 प्रतिशत ही बढ़ी.
निर्यात और आयात का अंतर पिछली बार 15 प्रतिशत बढ़ा था, तो इस बार एक प्रतिशत घटा है. इन सारे आंकड़ों का लब्बोलुआब यह है कि मंदी की सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता. अगर यही रुझान दो तिमाही तक और चला, तो यह पिछले तीन दशक की सबसे गंभीर स्थिति बन जायेगी.
मंदी का सीधा असर रोजगार पर देखा जा सकता है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे का रोजगार सर्वेक्षण पहले ही दिखा चुका है कि पिछले साल बेरोजगारी का स्तर आज तक रिकॉर्ड किये गये किसी आंकड़े से अधिक था. अब मंदी के चलते अलग-अलग उद्योगों से छंटनी की खबरें आ रही हैं.
बिस्कुट बनानेवाली पार्ले-जी कंपनी दस हजार कर्मचारियों की छंटनी करने जा रही है. बड़ी-बड़ी कंपनियों ने इस साल कैंपस रिक्रूटमेंट की योजनाएं स्थगित कर दी हैं. यानी कि रोजगार के मोर्चे पर कंगाली में आटा गीला वाली स्थिति है.
मंदी से निबटा जा सकता है, लेकिन उसके लिए सबसे पहले इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा. दुर्भाग्यवश सरकार अभी तक इस सच्चाई से मुंह चुरा रही है. बुखार का इलाज करने की बजाय थर्मामीटर को तोड़ने पर ध्यान दे रही है.
भारत के सांख्यिकीय विभाग की यह उपलब्धि रही है कि दुनियाभर में उसके आंकड़ों की साख है, लेकिन पिछले कुछ समय से सरकार जीडीपी के आंकड़ों में हेरफेर कर रही है. बेरोजगारी के सर्वेक्षण के आंकड़ों को दबाया गया. स्वयं मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यन का मानना है कि भारत की जीडीपी कम से कम दो से ढाई प्रतिशत बढ़ा कर दिखायी जा रही है.
ऐसे में और भी गहरी चिंता की बात यह है कि धीरे-धीरे सभी अच्छे अर्थशास्त्री इस सरकार को छोड़ कर जा रहे हैं. पिछले कार्यकाल में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन गये. फिर उर्जित पटेल भी बीच रास्ते में छोड़ कर चले गये. अरविंद सुब्रमण्यन ने भी कार्यकाल पूरा होने से पहले सरकार को छोड़ दिया.
अब आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष विवेक देबराय भी अलग हो रहे हैं. बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनीति के निपुण खिलाड़ी हैं और जैसा चाहते हैं, वैसे परिणाम हासिल कर सकते हैं, पर अर्थशास्त्र एक बिल्कुल अलग मामला है. नोटबंदी के प्रकरण ने यह दिखा दिया कि समझदार अर्थशास्त्रियों की राय के बिना काम करने का कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.
मरीज का शरीर तप रहा है. तीमारदार दूसरी तरफ मुंह करके बैठा है. थर्मामीटर को तोड़ दिया गया है और अब डॉक्टर को भी भगाया जा रहा है. इसका नतीजा क्या होगा, आप खुद ही सोच लीजिए.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें