रूस-ब्रिटेन में संकट के असर
पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार pushpeshpant@gmail.com मॉस्को नगर परिषद के चुनावों में पुतिन के विपक्षी उम्मीदवारों को नामांकन न करने देने के सरकार के फैसले ने रूस की राजधानी में जिन प्रदर्शनों को भड़काया है, वह महीने भर से रुकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. पुलिस के जरूरत से ज्यादा बल प्रयोग […]
पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
pushpeshpant@gmail.com
मॉस्को नगर परिषद के चुनावों में पुतिन के विपक्षी उम्मीदवारों को नामांकन न करने देने के सरकार के फैसले ने रूस की राजधानी में जिन प्रदर्शनों को भड़काया है, वह महीने भर से रुकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं.
पुलिस के जरूरत से ज्यादा बल प्रयोग द्वारा आंदोलनकारियों को तितर-बितर करने के प्रयास असफल रहे हैं और यूट्यूब पर दिखलाये गये वीडियो चित्रों ने पुलिस की बर्बरता को बुरी तरह बेनकाब कर दिया है. राष्ट्रपति पुतिन का कहना है कि यह सब उपद्रव चिंताजनक नहीं, यह तो रूसी जनतंत्र में शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र होकर असहमति प्रकट करने की आजादी का ही प्रमाण है.
जब मॉस्को में हजारों लोग सड़कों पर उतर आये थे और अपना आक्रोश-असंतोष व्यक्त कर रहे थे, उस समय पुतिन मिनी पनडुब्बी में बैठ अटलांटिक सागर की तलहटी में जांबाज गोताखोरी की नुमाइश कर रहे थे. इसके बाद उन्होंने उन जवांमर्द अधेड़-बुजुर्ग रूसियों की हौसला अफजाई की, जो मोटरसाइकिल रैलियों में हिस्सा ले रहे थे.
इन लोगों को उन्होंने रूसी नौजवानों का रोल मॉडल बताया. इन्हीं दिनों जब फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रां रूस के दौरे पर थे और प्रदर्शनकारियों के दमन पर चिंता मुखर कर रहे थे, तब पुतिन अपने मेहमान को यह याद दिलाने से नहीं चूके कि पेरिस में नारंगी बनियाइन पहने दंगाइयों की तुलना में रूसी बहुत अधिक अनुशासित और शांत थे. फ्रांस में आंदोलनकारी हिंसक थे और उनके उत्पात में सौ से अधिक लोगों ने प्राण गंवाये थे और दो हजार से ज्यादा घायल हुए थे, जिनमें पुतिन के अनुसार अधिकांश पुलिसकर्मी थे.
पुतिन ने दो टूक कहा कि रूस को इस तरह के आंदोलनों की दरकार नहीं. फिनलैंड के नेता से बात करते उन्होंने दोहराया कि मॉस्को की घटनाओं से चिंतित होने की जरूरत नहीं, क्योंकि इसे कहीं अधिक विस्फोटक हलचल के दौर से यूरोप के अन्य देश गुजर रहे हैं. जाहिर है कि पुतिन किसी आशंका का प्रदर्शन नहीं कर सकते. इसे उनकी कमजोरी ही समझा जायेगा और यदि ऐसा हुआ, तो आंदोलन अन्यत्र भी फैल सकते हैं. उस स्थिति में हालात पर काबू पाना कठिन हो सकता है.
सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि भले ही पिछले कार्यकाल की तुलना में पुतिन की लोकप्रियता तथा सार्वजनिक अनुमोदन में कमी आयी है, परंतु आज भी उनके समकक्ष कोई विपक्षी नेता नहीं है.
न ही कोई राजनीतिक दल- कम्युनिस्ट पार्टी समेत- उनकी पार्टी (यूनाइटेड रशन पार्टी) के सामने खड़ा हो सकता है. पिछले दो दशकों में पुतिन ने निर्ममता से अपने विरोधियों को चुप करा दिया है. रूसी मीडिया लगभग मूक है और कभी ताकतवर समझे जानेवाले औलिगार्क पंगु बनाये जा चुके हैं.
कई दुस्साहसिक आलोचक जो पुतिन पर दैत्याकार भ्रष्टाचार के आरोप लगाते थे, वे रहस्यमय ‘दुर्घटनाओं’ में जान गंवा चुके हैं. अब सवाल यह उठता है कि फिर क्यों रूसी नौजवान जान का जोखिम उठा कर आंदोलन प्रदर्शन कर रहे हैं?
इसका एक बड़ा कारण यह है कि रूस तेल की कीमतों में गिरावट तथा अमेरिका द्वारा लगाये प्रतिबंधों की वजह से आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है. रूसी अरसे के बात बेरोजगारी तथा तंगदस्ती से पीड़ित हैं.
आज वह इतने से संतुष्ट नहीं हो सकते कि पुतिन ने उन्हें उनका खोया आत्मसम्मान लौटाया है या यह कि पुतिन के नेतृत्व में रूस फिर से महाशक्ति बन गया है. यूक्रेन तथा मध्य पूर्व में सीरिया में सैनिक हस्तक्षेप को असंतुष्ट तबका अहंकारी फिजूलखर्ची ही मानता है. एक बात और भी है कि पुतिन के करिश्माई व्यक्तित्व की चौंधियानी वाली चमक का क्षय हुआ है. जब उन्होंने पहली बार सत्ता संभाली थी, वह नौजवान थे. आज 67 वर्ष की दहलीज पर पहुंचे वह सींग कटा कर बछड़ों में शामिल नहीं हो सकते.
इस बार का कार्यकाल समाप्त होते वह सत्तर साल पार कर चुके होंगे. रूसी जनता इस बात से भी चिंतित है कि शक्तिशाली पुतिन के बाद देश का क्या होगा? रूसी अर्थव्यवस्था में तत्काल सुधार के अभाव में सामाजिक असंतोष 1990 के दशक वाली उस राजनीतिक अस्थिरता को ही बढ़ावा दे सकता है, जो पहले भी इस महाशक्ति को अराजकता की कगार तक पहुंचा चुकी है.
लगभग ऐसे ही नाजुक दौर से ब्रिटेन भी गुजर रहा है. उस देश के नवनियुक्त प्रधानमंत्री की छवि एक मौकापरस्त खुदगर्ज राजनेता की है, जो अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए कुछ भी कर गुजर सकता है. श्रेष्ठिवर्ग के सदस्य बोरिस जॉन्सन कभी पत्रकार रहे थे. उस दौर में भी वह सत्य के संदर्भ में कंजूस ही समझे जाते थे.
यूरोपीय समुदाय के प्रति उनका बैर पुराना है. इस वक्त भी वह ब्रिटेन के राष्ट्रहित का सर्वस्व दांव पर लगा चुके हैं. उनका मानना है (बड़बोले डोनाल्ड ट्रंप की तरह) की वह इतने चतुर हैं कि हारी बाजी भी जीत सकते हैं. भले ही इस घड़ी लंदन में मॉस्को या हांगकांग जैसे प्रदर्शन नहीं हो रहे, परंतु सतह के नीचे असंतोष और आक्रोश सुगबुगा रहा है.
ब्रेक्जिट के संदर्भ में उत्तरी आयरलैंड की क्षणभंगुर शांति कभी भी भंग हो सकती है, क्योंकि उसकी सीमाएं पड़ोसी गणतांत्रिक आयरलैंड के साथ खुली हैं, जो यूरोपीय समुदाय का सदस्य है. अर्थात ब्रेक्जिट के बाद उत्तरी आयरलैंड का जीवन संकटग्रस्त हो जायेगा. यूरोपीय समुदाय ने इसलिए बैकस्टॉप की व्यवस्था सुझायी है, जो ‘बोजो’ को नागवार है.
यहां हम स्कॉटलैंड या वेल्स में अलगाववाद की बात नहीं कर रहे, पर निश्चय ही ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था बुरी आर्थिकमंदी की चपेट में आयेगी. अभी खाद्य पदार्थों, दवाइयों का संकट मुंह बाये खड़ा है. यह कल्पना करना कठिन है कि अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मारनेवाले इस दोस्त की मदद के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति उतावले होंगे. यूरोपीय समुदाय भी उदारता नहीं दिखला सकता.
ब्रेक्जिट के अलावा इटली, स्पेन तथा फ्रांस और जर्मनी की आंतरिक राजनीति की उथल-पुथल तथा ग्रीस और पुर्तगाल का आर्थिक संकट भी उसके गले की फांस बना हुआ है. अमेरिका द्वारा चीन के विरुद्ध वाणिज्य युद्ध की घोषणा तथा ईरान के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंधों ने भी यूरोप के संधिमित्रों के लिए धर्मसंकट खड़ा कर दिया है.
रूस तथा ब्रिटेन दोनों के साथ भारत के विशेष संबंध रहे हैं. वहां के घटनाक्रम से हम अप्रभावित नहीं रह सकते. खासकर तब, जब पाकिस्तान कश्मीर विवाद को तूल देने में भारत-विरोधी धुरी बनाने के लिए अमेरिका और चीन की मदद जुटाने में लगा है. याद रहे, ब्रिटेन और रूस हमारे लिए समान रूप से महत्वपूर्ण नहीं.