मानसून जरूरी है राजनीति के लिए
।। राकेश कुमार ।। प्रभात खबर, रांची आजकल बहुत जोर से चर्चा है मानसून के फेल होने की. हर राज्य अपने को सूखाग्रस्त घोषित करने और करवाने में लगा हुआ है. मानो सूखे पर सरकारी मुहर लगते ही चारों ओर खुशहाली फैल जायेगी, किसानों के दुख-दर्द उड़नछू हो जायेंगे! पक्ष-विपक्ष के नेताओं और आला अफसरों […]
।। राकेश कुमार ।।
प्रभात खबर, रांची
आजकल बहुत जोर से चर्चा है मानसून के फेल होने की. हर राज्य अपने को सूखाग्रस्त घोषित करने और करवाने में लगा हुआ है. मानो सूखे पर सरकारी मुहर लगते ही चारों ओर खुशहाली फैल जायेगी, किसानों के दुख-दर्द उड़नछू हो जायेंगे! पक्ष-विपक्ष के नेताओं और आला अफसरों की सूखा को लेकर चिंता अखबारों में इस कदर छलक रही है कि आपको बचपन में लिखे वो निबंध याद आने लगेंगे कि ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है’, या फिर ‘भारत किसानों और गांवों का देश है.’ ऐसी ही बातें सोचता-विचारता पास के नुक्कड़ पर पहुंचा. वहां तगड़ी बैठकी जमी हुई थी.
कोई नयी सरकार का गुणगान कर रहा था, तो उसकीराह में रुकावटों व चुनौतियों की चर्चा कर रहा था. इसी में मानसून के फेल होने की बात भी उठी. एक बुजुर्ग ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘सूखा हमेशा से बड़े काम की चीज रहा है. जब भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े रिकॉर्ड बनाने के अवसर नहीं थे, तब सूखा ही नेताओं और अफसरों की जेब में तरी लाता था. राज्य सरकारें अपने यहां कम बारिश दिखा कर राज्य को सूखाग्रस्त घोषित करवा देती थीं.
इससे केंद्रीय सहायता के रूप में करोड़ों रुपये मिल जाते थे. फिर क्या था, लग जाते थे नेता और अफसर दोनों हाथों से बटोरने में. जिसके लिए राहत रवाना होती थी, उससे किसी और के दिल को ही राहत पहुंचती थी.’’ उनकी बात सुन कर मैं सोचने लगा, कहीं ऐसा ही विचार इस बार भी तो सरकारों का नहीं!
हर साल इस देश में बाढ़, सूखा और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से निबटने के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं. आज से नहीं, बरसों से. लेकिन किसानों की स्थिति वहीं की वहीं हैं. क्योंकि सुखाड़ और बाढ़ राहत के नाम पर किसानों को एक रुपया मिलता है, तो 10 रुपये कहीं और खनक रहे होते हैं.
कहीं किसी नेता जी की बीवी के हाथों में सोने के मोटे-मोटे कंगन बन कर, तो किसी अफसर के यहां पायल बन कर. जब से काला धन का शोर ज्यादा मचा है, तब से राहत की रकम जमीन और फ्लैट खरीदने में लगायी जा रही है. सारा राहत कार्य बस कागजों पर होता है. इस कला, या कहें कि विज्ञान में हम इतने पुराने माहिर हैं कि पश्चिम के सबसे विकसित देश आज तक हमारी बराबरी नहीं कर पाये हैं. जब भी मानसून धोखा देता है, किसानों के खेतों में सूखा और नेताओं के यहां हरियाली. अभी यह सब सोच ही रहा था कि एक नवयुवक ने बड़े जोर से कहा, ‘‘अंकल जी, वो दिन गये जब इस तरह नेता मालामाल होते थे. अब तो आरटीआइ का जमाना है सारी पोल खुल जायेगी. और फिर मोदी जी सूखे से निबटने में माहिर हैं. गुजरात में वैसे भी बारिश कम होती है. इसलिए अब आप पुरानी बातों को छोड़ दें.’’ मैं सोचने लगा कि अब बहस नये व पुराने जमाने पर चली गयी. मानसून की चिंता इनमें से किसी को नहीं है. शायद बहस का यही स्वरूप रह गया है.