संघ लोक सेवा आयोग द्वारा ली जानेवाली प्रतिष्ठित लोक सेवा परीक्षा में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों के साथ भेदभाव को लेकर जारी विवाद गंभीर होता जा रहा है.हालांकि गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने आश्वासन दिया है कि सप्ताह भर में इसे सुलझा लिया जायेगा. अब देखना यह है कि सरकार का संभावित निर्णय वर्तमान राजनीतिक मजबूरियों से निर्देशित होगा या भारतीय भाषाओं की उपेक्षा से निपटने के लिए कोई दूरगामी फैसला लिया जायेगा.
परीक्षार्थियों की मुख्य आपत्ति 2011 से किये गये बदलाव को लेकर है, जिसमें अंगरेजी पर जोर है और प्रश्न-पत्र के हिंदी अनुवाद की गुणवत्ता निम्न दर्जे की है. सरकार ने इस संबंध में पूर्व अधिकारी अरविंद वर्मा के नेतृत्व में तीन-सदस्यीय समिति गठित की है, जिसकी रिपोर्ट प्रतीक्षित है.
इस बीच आयोग द्वारा परीक्षा के प्रवेश-पत्र जारी कर दिये जाने से आक्रोशित छात्र राजधानी की सड़कों पर हैं. यह सवाल सिर्फ एक बड़ी परीक्षा में सुधार का ही नहीं, बल्कि भारतीय भाषाओं के साथ देश के अंगरेजीदां अभिजन के उपेक्षात्मक व्यवहार का भी है. प्रश्न-पत्र में अंगरेजी पर अनावश्यक जोर से हिंदी व अन्य भाषाओं के छात्र उपेक्षित महसूस कर रहे हैं.
प्रश्न पत्रों के निकृष्ट अनुवाद से यह मामला और गंभीर हो जाता है. रिपोर्टो की मानें, तो ये अनुवाद कंप्यूटर द्वारा किये जाते हैं, जिसकी क्षमता संदिग्ध व अप्रमाणिक है. क्या उच्चाधिकारियों का चयन करनेवाले संघ लोक सेवा आयोग के पास उच्च कोटि के अनुवादकों की सेवाएं लेने के संसाधन नहीं हैं या यह हिंदी की उपेक्षा का एक और निंदनीय उदाहरण है? देश में भाषाओं की पढ़ाई पर खर्च और ध्यान में निरंतर कमी आ रही है.
न केवल तकनीक व प्रबंधन की शिक्षा को अंगरेजी माध्यम तक सीमित कर दिया गया है, बल्कि देश में शिक्षा की रीढ़ मानी जानेवाली संस्था सीबीएससी ने 11वीं-12वीं कक्षा में भारतीय भाषाएं पढ़ने की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी है. राष्ट्र-निर्माताओं ने कहा था कि भारत की मजबूती उसकी भाषाओं की समृद्धि से तय होगी. औपनिवेशिक दासता से मुक्ति-संघर्ष के अप्रतिम नायक जोस रिजाल ने कहा था कि अपनी भाषा को बचाना अपनी आजादी के निशान को बचाना है. क्या सरकार के नीति-निर्माता इस पर ध्यान देंगे?