देश में जीविका के लिए खेती पर निर्भर आबादी अब भी 50 फीसदी से ज्यादा है, लेकिन सकल घरेलू उत्पादन में कृषि और उससे जुड़े उपक्षेत्रों का योगदान पिछले 25 सालों से लगातार घटते हुए दस फीसदी के आसपास रह गया है.इसका सीधा अर्थ यह है कि जीविका के लिए खेती पर निर्भर लोगों की आमदनी अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों की तुलना में नहीं बढ़ रही है. लिहाजा, खेती के विकास के लिए बनने वाले किसी भी रोडमैप का मूल्यांकन करते हुए यह देखा जाना चाहिए कि वह देश की खेतिहर आबादी की घटती आमदनी का समाधान किस सीमा तक कर पाता है.
यानी कृषि के विकास का रोडमैप इस प्राथमिकता के साथ बनाया जाना चाहिए कि किसान को अपने लागत की तुलना में उत्पाद का लाभकर मूल्य मिले. 16वीं लोकसभा के चुनाव-प्रचार के अंतिम दौर में भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ‘मैं किसानों की जेब हरे-हरे नोटों से भर देना चाहता हूं.’ जाहिर है, मोदी के पीएम बनने पर खेतिहर आबादी ने उनसे ऐसी ही उम्मीद बांधी होगी.
लेकिन, नयी सरकार के गठन के दो महीने बाद खेती-बाड़ी के विकास के लिए नरेंद्र मोदी का जो रोडमैप सार्वजनिक रूप से सामने आया है, पहली नजर में वह पुरानी प्राथमिकताओं को ही एक नयी भाषा में प्रस्तुत करता जान पड़ता है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के समारोह में प्रधानमंत्री ने कृषि-क्षेत्र के विकास के लिए जो विचार रखे हैं, उसमें पूर्ववर्ती सरकार की ही तरह उत्पादन बढ़ाने पर जोर है.
यूपीए सरकार भी अपने आखिरी दिनों में कह रही थी कि देश की खेती को दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है और इसी के अनुरूप खेती को वैज्ञानिक तरीके से समुन्नत तथा निर्यातोन्मुखी बनाना होगा. अब मोदी ने भी कमोबेश यही प्राथमिकता दोहरायी है. हमें ध्यान रखना होगा कि कृषि उत्पादन के मामले में भारत एक समुन्नत स्थिति में पहुंच चुका है. हाल के वर्षो में अनाज के गोदाम लगातार भरे रहे हैं.
बड़ी जरूरत खेती के विविधीकरण, उत्पादों के उचित भंडारण, मूल्य-निर्धारण और संरक्षित बाजार तैयार करने की है. उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी सरकार की नजर कृषि अर्थव्यवस्था के इन उपेक्षित दायरों पर भी जायेगी और वह दूरगामी सोच के साथ एक समग्र नीति तैयार करेगी.