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फिर पास आ रहे भारत और रूस
पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार pushpeshpant@gmail.com रूस के पूर्वी छोर पर व्लादिवोस्तोक शहर में मोदी तथा पुतिन की मुलाकात को बहुत तेजी से बदल रहे अंतरराष्ट्रीय शक्ति समीकरणों को संतुलित करने के एक महत्वपूर्ण विकल्प के रूप में देखा जाना चाहिए. पिछले महीनेभर से, जब से भारत ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त […]
पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
pushpeshpant@gmail.com
रूस के पूर्वी छोर पर व्लादिवोस्तोक शहर में मोदी तथा पुतिन की मुलाकात को बहुत तेजी से बदल रहे अंतरराष्ट्रीय शक्ति समीकरणों को संतुलित करने के एक महत्वपूर्ण विकल्प के रूप में देखा जाना चाहिए. पिछले महीनेभर से, जब से भारत ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त कर उसका विभाजन तथा पदावनति एक साथ की है, तभी से पाकिस्तान इस विवाद का अंतरराष्ट्रीयकरण करने पर आमादा है.
आरंभ में अमेरिका समेत सभी पश्चिमी तथा इस्लामी देश इसे उभयपक्षीय मतभेद मान कमोबेश भारत को समर्थन देते नजर आये. चीन का बयान भी अनपेक्षित रूप से संयत था, पर जैसे-जैसे समय बीत रहा है और कश्मीर घाटी में स्थिति सामान्य करने में वक्त लग रहा है, वैसे-वैसे अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय समुदाय में असमंजस बढ़ रहा है. भारत के लिए यह परम आवश्यक है कि वह कम-से-कम एक महाशक्ति को अपने साथ खड़ा दिखा सके.
आजादी के बाद के चार-पांच वर्षों को छोड़ तत्कालीन सोवियत संघ का समर्थन भारत को निरंतर मिलता रहा है. नेहरू युग में गुटनिरपेक्ष भारत को अमेरिका अपने शत्रुओं का मित्र समझता था और नेहरू को हंगरी, सुएज जैसे संकटों में दोहरे मानदंड अपनाता दिखाई देता था.
जहां पश्चिमी पूंजीपति देश भारत के आर्थिक विकास तथा तकनीकी प्रगति में सहायता-सहकार से हिचकते रहे, सोवियत संघ ने इस्पात उत्पादन, तेल शोधन, प्राणरक्षक औषधियों के निर्माण तथा अंतरिक्ष अन्वेषण में भारत को साझीदार बनाया. इस दौर की सबसे बड़ी सामरिक उपलब्धि यह थी कि जब-जब सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के आका अमेरिका ने कश्मीर विवाद को छेड़ा, सोवियत वीटो ने कवच की तरह भारत की रक्षा की.
पिछली आधी सदी से रूस (पहले सोवियत संघ) ही सैनिक साज सामान की खरीद के लिए हमारा सबसे बड़ा स्रोत रहा है. मिग लड़ाकू विमान हों या सुखोई बम वर्षक, विमान वाहक पोत हों या पनडुब्बियां अथवा टैंक एवं हेलीकॉप्टर, शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा, जहां हमारी संहार क्षमता या सुरक्षा रूसी उपकरणों पर निर्भर न हो. ‘ब्रह्मोस’ प्रक्षेपास्त्र इस अति संवेदनशील सहकार का अनूठा उदाहरण हैं.
परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग में भी भारत रूसी सहकार से लाभान्वित हुआ है. कोटा का भारी पानी उद्यम इसकी मिसाल है. भारी इंजीनियरिंग, रासायनिक उर्वरक, परिष्कृत कांच उद्योग, इन सभी क्षेत्रों में रूस की सहायता से भारत आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ सका है.
रूस ने यह सब परोपकार की भावना से निःस्वार्थ नहीं किया है. यह राष्ट्रीय हितों के संयोग का ही चमत्कार था. पुतिन के सत्ता ग्रहण करने तक रूस अराजकता तथा दिवालियेपन की कगार तक पहुंच चुका था.
इन दिनों साखालिन के तेलकूपों में भारतीय निवेश और सैनिक साजो-सामान की खरीद रूस के लिए विदेशी मुद्रा का प्रमुख स्रोत बन चुका था. कठिन परिस्थितियों में लाभ के लालच में रूस पहुंची भारतीय कंपनियों ने रूस की अर्थव्यवस्था को प्रकारांतर से फायदा पहुंचाया.
पिछले दो दशको में भारत तथा रूस के संबंध पहले जैसे प्रगाढ़ नहीं रहे. इसका सबसे बड़ा कारण मनमोहन सिंह के कार्यकाल में अमेरिका के साथ घनिष्ठ रिश्तों का निर्माण था. वैसे यह काम नरसिंह राव के प्रधानमंत्री पद पर रहते ही आरंभ हो चुका था तथा वाजपेयी सरकार में विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने इसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी. दूसरी ओर पुतिन क्रमशः यूरोप की तरफ देखने लगे. सोवियत संघ एक यूरेशियाई राज्य था. विखंडन के बाद मध्य एशियाई गणराज्य अलग हो गये.
गोरे स्लाव ईसाई रूसी पूर्वी यूरोप में अपने उपनिवेशों को फिर से अपनी तरफ आकर्षित करने में जुट गये. तेल-गैस की कीमतों के बढ़ने के साथ रूस की अर्थव्यवस्था सिर्फ भारत के साथ सौदों पर निर्भर नहीं रही, यानी दोनों ही देश अपने हित साधन के लिए अन्यत्र देखने लगे.
आज फिर हालात बदल रहे हैं. अमेरिका ने भले ही रूस के विरुद्ध चीन जैसा वाणिज्य युद्ध नहीं छेड़ा है, पर उसके खिलाफ भी कड़े आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा की है.
पुतिन को घेरने का डोनाल्ड ट्रंप कोई मौका छोड़ते नहीं, भले ही इसके लिए उन्हें परमाण्विक मुठभेड़ की धमकी ही क्यों न देनी पड़े. पुतिन ने पुनर्निर्वाचन के बाद जुझारू तेवर मुलायम नहीं किये. यूक्रेन तथा क्रीमिया में सैनिक हस्तक्षेप के बाद उन्होंने सीरिया के रण क्षेत्र में अमेरिका विरोधी बागियों को सहायता देने में कोई कसर नहीं की है.
पुतिन को यह विश्वास है कि ट्रंप चुनाव के वर्ष में चीन के अलवा दूसरा मोर्चा खोलने का दुस्साहस नहीं कर सकते, तथापि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश की मित्रता बहुत उपयोगी साबित हो सकती है. चीन के विस्तारवादी आक्रामक तेवरों पर नकेल कसने के लिए भारत तथा जापान ही उसके स्वाभाविक सामरिक सहयोगी-साझेदार हो सकते हैं.
भारत के लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता पाकिस्तान को चीन से प्राप्त समर्थन को निरस्त करने की है. आज हम फ्रांस से रफायल विमान का सौदा कर चुके हैं, पर एस-400 प्रक्षेपास्त्र इनसे कम संवेदनशील नहीं. अमेरिका इनकी खरीद पर आपत्ति दर्ज करा चुका है.
शायद इसी कारण पुतिन-मोदी के संयुक्त वक्तव्य में इसका जिक्र नहीं किया गया है, परंतु जिन दर्जनों सौदों-समझौतों का बखान है, उनसे स्पष्ट है कि भारत और रूस दोनों ही फिर से पास आने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि बदलते अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में अपने राष्ट्रीय हितों को निरापद रख सकें.
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