पिछले दिनों रोटी के एक टुकड़े ने राजनीति के गलियारों में अचानक बवंडर पैदा कर दिया. संसद के महाराष्ट्र सदन की कैंटीन की अव्यवस्था से रुष्ट कुछ नेताओं ने मैनेजर के मुंह में रोटी ठूंसने की कोशिश की.इसे लेकर संसद से सड़क तक सबने अपने-अपने मतलब की रोटियां सेंकनी शुरू कर दी. क्या यही हमारे सियासतदानों का असली चेहरा है? क्या यह मुखालफत का कोई नायाब तरीका है? टीवी पर आयी और छायी तसवीरों को सबने देखा. जबरन किये गये काम को कानून की किताब में जाने क्या कहेंगे, इस बात को बहुत लोग नहीं जानते मगर छोटी सी माफी बेशक नाकाफी है.
वैसे इरादा हो या न हो, अनजाने ही सही, है तो यह ‘फिजिकल असॉल्ट’ ही न! हमारे देश के नेता दावा तो सर्वधर्म समभाव का करते हैं, लेकिन ये सभी धर्मो की इज्जत क्या खाक करेंगे जब इनसानियत का धर्म ही नहीं जानते?
देखने वालों को रोटी तो रोटी जैसी ही दिख रही थी. हालांकि देश की बड़ी आबादी को कई बार ऐसी रोटी भी नसीब नहीं होती. काश अपनी रोटी के बजाय गरीब की रोटियों की फिक्र की होती!
एक तो खाज, उस पर कोढ़. रोटी ठूंसी भी तो एक रोजेदार के मुंह में. पता नही यह जान-बूझ कर हुआ या अनजाने में, लेकिन कुछ लोग अति ज्वलनशील वस्तु की तलाश करते ही रहते हैं, आग तो जैसे उनकी जेब में ही रहती है.
संभव है वह व्यक्ति रोजेदार हो, सियासत के लिए इतना काफी है. ना हो तो भी इस बेजा हरकत को हैवानियत ही कहेंगे. अच्छा नाम रख लेने से कर्म भी अच्छे हों, यह जरूरी नहीं है. अवाम ऐसी ‘सेना’ पर कैसे भरोसा करे, जिसने मुल्क का सिर नीचा किया है. और एक बार नहीं, कई बार किया है. मजहब कोई हो, ज्यादती का हक किसी को नहीं है.
एमके मिश्र, रातू, रांची