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हिंदी विरोध की अंध राजनीति

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in थोड़े कठोर शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं कि 14 सितंबर, हिंदी दिवस एक तरह से सरकारी तर्पण का अवसर बन गया है. एक ही तरह की बातें की जाती हैं कि हिंदी ने ये झंडे गाड़े लेकिन बस थोड़ी सी कमी रह गयी है, इत्यादि-इत्यादि. अखबार भी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 23, 2019 1:55 AM
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
थोड़े कठोर शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं कि 14 सितंबर, हिंदी दिवस एक तरह से सरकारी तर्पण का अवसर बन गया है. एक ही तरह की बातें की जाती हैं कि हिंदी ने ये झंडे गाड़े लेकिन बस थोड़ी सी कमी रह गयी है, इत्यादि-इत्यादि.
अखबार भी साल दर साल एक ही तरह की सामग्री छापते हैं. हालांकि, प्रभात खबर ने इस बार अलग सामग्री दी कि हिंदी के उत्थान में किन विदेशी विद्वानों ने योगदान दिया है. कामिल बुल्के से तो हिंदी पढ़ने वाले परिचित हैं ही, लेकिन फ्रांस के गार्सा द तासी, आयरलैंड के डॉ जार्ज ग्रियर्सन, न्यूजीलैंड के रोनाल्ड मेक्ग्रेगार, चेकोस्लोवाकिया की डॉ ओदोलेन जैसे अन्य विद्वानों के योगदान का भी स्मरण किया गया. चिंताजनक बात यह है कि इस मौके पर हिंदी के समक्ष चुनौतियों पर कोई गंभीर विमर्श नहीं होता है.
यह चर्चा भी नहीं होती कि सरकारी हिंदी ने हिंदी का कितना नुकसान पहुंचाया है. अगर सरकारी अनुवाद का प्रचार-प्रसार हो जाये, तो हिंदी का बंटाधार होने से कोई नहीं रोक सकता है. रही सही कसर गूगल अनुवाद ने पूरी कर दी है. इसमें अर्थ का जो अनर्थ होता है, उसका कोई जवाब नहीं और कई संस्थानों में यही चला भी दिया जाता है.
मुझे लगता है कि अपनी भाषा को लेकर जो गर्व हमें होना चाहिए, उसकी हम हिंदी भाषियों में बहुत कमी है. हमें अंग्रेजी बोलने, पढ़ने-लिखने और अंग्रेजियत दिखाने में बड़प्पन नजर आता है. अगर आसपास नजर दौड़ाएं तो हम पायेंगे कि हमारे नेता, लेखक और बुद्धिजीवी हिंदी की दुहाई तो बहुत देते नजर आते हैं, लेकिन जब अपने बच्चों की पढ़ाई की बात आती है तो वह अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों को ही चुनते हैं.
हिंदी दिवस के मौके पर गृह मंत्री अमित शाह जिस तरह हिंदी के पक्ष में खड़े हुए हैं, हिंदी भाषियों को उनकी तारीफ करने में संकोच नहीं करना चाहिए.
अमित शाह ने कहा कि देश को एकजुट करने का काम अगर कोई भाषा कर सकती है, तो वह हिंदी है. लेकिन आश्चर्य है कि उनका यह बयान हमारे देश के अनेक राजनेताओं को नागवार गुजरा है. उन्होंने कहा कि भारत कई भाषाओं का देश है और हर किसी का अपना महत्व है.
लेकिन, पूरे देश में एक भाषा का होना बेहद जरूरी है जो दुनिया में उसकी पहचान बने. आज भारत को एकता की डोर में बांधने का काम कोई भाषा कर सकती है, तो वह हिंदी है.
अमित शाह ने हिंदी को लेकर एक राष्ट्र-एक भाषा के फॉर्मूला का समर्थन किया. वर्ष 2020 से सार्वजनिक रूप से हिंदी दिवस मनाने की घोषणा भी की. लेकिन, राजनेताओं की उनकी स्पष्टवादिता पसंद नहीं आयी. केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के नेताओं ने उनके बयान का तीखा विरोध किया है. यहां तक कि उनकी ही पार्टी के नेता कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा भी हिंदी विरोध में उतर आये. उन्होंने कहा कि कन्नड़ उनकी असली भाषा और हम कभी भी कन्नड़ के महत्व से समझौता नहीं करेंगे.
हिंदी भारत के लगभग 40 फीसदी लोगों की मातृभाषा है. अंग्रेजी, मंदारिन और स्पेनिश के बाद हिंदी दुनियाभर में बोली जाने वाली चौथी सबसे बड़ी भाषा है.
लेकिन यह राष्ट्रभाषा नहीं है. इसे राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है. राजभाषा वह भाषा होती है जिसमें सरकारी कामकाज किया जाता है. आप, हम सब जानते हैं कि नौकरशाहों की भाषा अंग्रेजी है. जो हिंदी भाषी भी हैं, वे अंग्रेजीदां दिखने की पुरजोर कोशिश करते नजर आते हैं. अंग्रेजों की गुलामी के दौर में अंग्रेजी प्रभु वर्ग की भाषा थी और हिंदी गुलामों की. यह ग्रंथि आज भी देश में बरकरार है.
कई लोग दलील देते मिल जायेंगे कि अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की भाषा है. जबकि रूस, जर्मनी, जापान और चीन जैसे देशों ने यह साबित कर दिया है कि अपनी मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान के अध्ययन में भी कोई कठिनाई नहीं आती है.
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने को लेकर आंदोलन होते रहे हैं. यह भी पहली बार नहीं है कि हिंदी को अपनाये जाने का विरोध हुआ हो. तमिलनाडु में हिंदी विरोध की राजनीति काफी पहले से होती आयी है.
इसमें अनेक लोगों की जानें तक जा चुकी हैं. तमिलनाडु के नेता त्रिभाषा फार्मूले के तहत हिंदी को स्वीकार करने को भी तैयार नहीं रहे हैं. वे हिंदी का जिक्र भर कर देने से नाराज हो जाते हैं. तमिल राजनीति में हिंदी का विरोध 1937 के दौरान शुरू हुआ था और देश की आजादी के बाद भी जारी रहा. सी राजागोपालाचारी ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य बनाने का सुझाव दिया, तब भी भारी विरोध हुआ था.
तमिलनाडु के पहले मुख्यमंत्री अन्नादुरई ने तो हिंदी नामों के साइनबोर्ड हटाने को लेकर एक आंदोलन ही छेड़ दिया था. इस आंदोलन में डीएमके नेता और तमिलनाडु के कई बार मुख्यमंत्री रहे दिवंगत एम करुणानिधि भी शामिल रहे थे. हाल ही में नयी शिक्षा नीति के प्रस्ताव में जब गैर हिंदी भाषी राज्यों में कक्षा आठ तक के छात्रों के लिए हिंदी पढ़ना अनिवार्य किया गया, तो इसका तमिलनाडु में भारी विरोध शुरू हो गया था. आखिरकार केंद्र सरकार को इसे वापस लेना पड़ा था.
इन दिनों सोशल मीडिया पर तमिलनाडु के एक छात्रा बी साधनाश्री का पत्र चर्चा में है जो उन्होंने डीएमके नेता स्टालिन को इसी साल जुलाई में लिखा था. इसमें उन्होंने लिखा है कि डीएमके नेता तमिलनाडु के लोगों को मूर्ख बनाना बंद करें कि हिंदी भाषा तमिल को नष्ट कर देगी. छात्रा लिखती है कि वह मध्य वर्ग परिवार से है और उसका परिवार 30 हजार रुपये सालाना उनकी स्कूली फीस पर खर्च करता है.
उनके पिता स्कूल में ड्राइवर के रूप में सेवाएं भी देते हैं ताकि फीस में उन्हें पांच हजार रुपये की छूट मिल जाए. केंद्र सरकार ने सभी राज्यों में नवोदय विद्यालय खोले, लेकिन उनमें हिंदी भी पढ़ाई जाती है. इस आधार पर तमिलनाडु में डीएमके ने इनका विरोध किया और ये स्कूल तमिलनाडु में नहीं खुल पाये, जबकि पड़ोसी सभी राज्यों में ये स्कूल चल रहे हैं. यहां तक कि पुद्दुचेरी में भी ये स्कूल हैं.
छात्रा ने लिखा है कि पुद्दुचेरी में नवोदय विद्यालय में पढ़ने वाले कई बच्चों ने नीट की मेडिकल परीक्षा उत्तीर्ण की लेकिन तमिलनाडु के सरकारी स्कूल में पढ़ने वाला एक भी बच्चा इसे पास नहीं कर पाया. अंत में साधनाश्री ने स्टालिन को लिखा है कि हमें मूर्ख बनाना बंद कर दें कि हिंदी सीखने से तमिल भाषा समाप्त हो जायेगी. यह पत्र तमिलनाडु में हिंदी विरोध करने वाले सभी नेताओं के लिए एक आईना है.
वर्षों पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी भाषा और संस्कृति के विषय में कहा था जो आज भी सच है.
‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल’
हिंदी भाषियों के लिए संदेश यह है कि अंग्रेजी जरूर पढ़िए, लेकिन अपनी मातृभाषा की अनदेखी मत करिए.

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