महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव

अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार awadheshkum@gmail.com मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने अन्य पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों से परे जितने कम समय में चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा की, वह प्रशंसनीय है. हरियाणा विधानसभा का कार्यकाल 2 नवंबर एवं महाराष्ट्र का 9 नवंबर को खत्म हो रहा है. चुनाव आयोग के लिए उसके पूर्व चुनाव प्रक्रिया संपन्न […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 26, 2019 6:59 AM
अवधेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
awadheshkum@gmail.com
मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने अन्य पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों से परे जितने कम समय में चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा की, वह प्रशंसनीय है. हरियाणा विधानसभा का कार्यकाल 2 नवंबर एवं महाराष्ट्र का 9 नवंबर को खत्म हो रहा है. चुनाव आयोग के लिए उसके पूर्व चुनाव प्रक्रिया संपन्न करना अनिवार्य था. 21 अक्तूबर को दोनों राज्यों में मतदान संपन्न हो जायेगा एवं 24 अक्तूबर को मतगणना. यह चुनाव मोदी सरकार-2 के संसद के पहले सत्र में रिकॉर्डतोड़ काम करने के आलोक में हो रहा है.
महाराष्ट्र के पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा एवं शिवसेना के बीच ढाई दशक में पहली बार गठबंधन नहीं हुआ. लेकिन भाजपा कुल 288 में से 122 सीटें जीतने में कामयाब रही, जबकि शिवसेना 63 पर सिमट गयी.
बाद की परिस्थितियों में दोनों को मिलकर सरकार बनाने को विवश होना पड़ा. भाजपा को 27.81 प्रतिशत तथा शिवसेना को 19.35 प्रतिशत मत मिला था. इसके समानांतर कांग्रेस को 17.95 प्रतिशत तथा राकांपा को 17.24 प्रतिशत मत मिला. यदि दोनों को मिला दें, तो कांग्रेस-राकांपा को 35.19 प्रतिशत एवं भाजपा-शिवसेना को 46.16 प्रतिशत मत मिला. इस तरह दोनों के बीच करीब 11 प्रतिशत मतों का अंतर था. लोकसभा चुनाव में भाजपा एवं शिवसेना में समझौता हो गया था. भाजपा ने 23 तथा शिवसेना ने 18 सीटें जीतीं. राकांपा ने 4 तथा कांग्रेस केवल एक सीट जीती.
भाजपा का 27.59 प्रतिशत और शिवसेना का 23.29 प्रतिशत मिलकर 50.88 प्रतिशत मत हो जाता है. इसके समानांतर कांग्रेस के 16.27 प्रतिशत एवं राकांपा 15.52 प्रतिशत को मिला दें, तो यह 31.79 प्रतिशत ही होता है. इस तरह दोनों के बीच करीब 19 प्रतिशत मतों का अंतर है. इस भारी अंतर को पाटना तभी संभव है, जब सरकार के खिलाफ व्यापक असंतोष हो.
हरियाणा में भाजपा ने 90 में से 47 सीटें जीतकर पहली बार अपने दम पर सरकार बनायी. 19 सीटें लेकर दूसरे स्थान पर आईएनएलडी एवं 15 सीटों के साथ कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही. अन्य ने 9 सीटें प्राप्त कीं. भाजपा को 33.20 प्रतिशत, आईएनएलडी को 24.11 प्रतिशत और कांग्रेस को 20.58 प्रतिशत मत मिला. बसपा ने 4.37 प्रतिशत, हरियाणा जनहित कांग्रेस ने 3.57 प्रतिशत मत प्राप्त किया था. लोकसभा चुनाव में हरियाणा में भाजपा को 58.02 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 28.42 प्रतिशत मत मिला. सभी 10 सीटें भाजपा के खाते में गयीं.
भाजपा का अपना मत ही विधानसभा चुनावों से 25 प्रतिशत ज्यादा हो गया. अगर दोनों चुनावों के मतों के अनुसार गणना करें, तो भाजपा के निकट कोई पार्टी नहीं है. महाराष्ट्र की तरह हरियाणा में भी भाजपा को हराने के लिए उसके खिलाफ जनता में व्यापक असंतोष तथा विपक्ष यानी कांग्रेस के पक्ष में लहर चाहिए.
लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से महाराष्ट्र में कुल 16 विधायकों तथा 16 पूर्व विधायकों ने पाटी छोड़कर भाजपा एवं शिवसेना का दामन थामा है.
इस स्थिति का अर्थ यही है कि दूसरी पार्टियों के नेताओं को लग रहा है कि अगर प्रदेश की राजनीति में प्रासंगिकता बनाये रखनी है, तो भाजपा या शिवसेना की ओर प्रयाण करना होगा. आज की स्थिति यह है कि भाजपा ने शिवसेना को छोड़ दिया होता, तो शिवसेना से भी भारी संख्या में नेता भाजपा की ओर भागने की कोशिश करते.
हरियाणा में आईएनएलडी बंट चुकी है. दुष्यंत चौटाला जननाययक जनता पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में हैं. कांग्रेस में अंदर इतना कोहराम मच गया था कि अपनी बात पहुंचाने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को रैली कर पार्टी नेतृत्व की यह कहते हुए आलोचना करनी पड़ी कि यह पहले वाली कांग्रेस नहीं है.
हालांकि सोनिया गांधी ने एकता के लिए अशोक तंवर की प्रदेश अध्यक्ष पद से छुट्टी कर दी, लेकिन पार्टी में चुनाव पूर्व एकता कायम करना कठिन है. हरियाणा में भी दूसरी पार्टियों के नेताओं ने भारी संख्या में भाजपा का दामन थामा है.
चुनावी विश्लेषक यह गणना कर सकते हैं कि फलां जाति का इतना मत और फलां समुदाय का इतना मत फलां पार्टी के पक्ष में जाता है. आज का सच यह है कि 2014 के आम चुनाव से जातीय एवं सांप्रदायिक समीकरणों को धक्का लगना आरंभ हुआ. नरेंद्र मोदी का नाम ज्यादातर प्रदेशों में सभी समीकरणों पर भारी पड़ा है. पिछले चुनावों के बाद भाजपा ने महाराष्ट्र और हरियाणा में लीक से हटकर मुख्यमंत्री दिया था. इस बार दोनों राज्यों में मतदाताओं के सामने मुख्यमंत्री विद्यमान हैं.
ये किसी प्रभावी जातीय समीकरण में नहीं आते. ऐसा नहीं है कि प्रदेशों में समस्याएं नहीं हैं या सरकारों के खिलाफ मुद्दे नहीं हैं. किंतु एक तो देश के स्तर पर मोदी-शाह की लोकप्रियता, प्रदेशों के स्तर पर फड़नवीस तथा खट्टर व अन्य मंत्रियों की लगभग स्वच्छ छवि तथा देश एवं प्रदेश दोनों में हताश विपक्ष उन मुद्दों को उस सीमा तक ले जाने में सक्षम नहीं है कि वह दोनों सरकारों को कठघरे में खड़ा कर सके.
विपक्ष जब भी सरकार के विरुद्ध जम्मू-कश्मीर या पाकिस्तान को लेकर जितनी आलोचना करता है, उतनी ही मात्रा में जनता उसके खिलाफ जाती है. यह मुद्दा दोनों प्रदेशों में प्रबल है. दोनों प्रदेशों में कांग्रेस के नेताओं ने जनता का मूड भांपकर ही तो पार्टी लाइन से अलग होकर अनुच्छेद 370 हटाये जाने का समर्थन किया था. इस माहौल में हो रहे चुनाव इससे प्रभावित नहीं होंगे, ऐसा नहीं माना जा सकता.
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