इस साल मॉनसून में सामान्य से अधिक बारिश के कारण देश के कई हिस्सों में बाढ़ की स्थिति बनती रही है. अभी उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और महाराष्ट्र के अनेक जिलों में पानी भरा हुआ है. आम तौर पर मॉनसून की अवधि जून से सितंबर तक होती है, पर इस बार मध्य-अक्टूबर तक ही यह खत्म हो सकेगा. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जून से अब तक 16 सौ से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं.
साल 1994 के बाद इस बार सबसे अधिक बरसात हुई है. अगस्त में तो नदियों ने 25 बार बाढ़ के खतरे के उच्चतम स्तर को पार किया था. इस बार मॉनसून में बीते 50 सालों के औसत से 10 फीसदी ज्यादा बारिश हो चुकी है. कई जगहों पर तो सालाना बारिश से सैकड़ों फीसदी ज्यादा बरसात दो-चार दिनों में हो चुकी है. मॉनसून के जाने में महीने भर से अधिक की देरी के साथ इस तथ्य का संज्ञान भी लेना चाहिए कि मॉनसून पूर्व बारिश इस बार बहुत कम रही थी और अनेक जगहों में यह देर से पहुंचा था.
देशभर की घटनाओं ने एक बार फिर यह साबित किया है कि बाढ़ रोकने की तैयारी और पूर्वानुमान की व्यवस्था ठीक रखने में सरकारें विफल साबित हुई हैं. मौतों का मुख्य कारण घर या दीवार गिरना है. शहरी क्षेत्रों में जल-जमाव का मुख्य कारण नालों की बदहाली और पानी जमा होने की जगहों का अतिक्रमण है.
यदि प्रशासनिक मुस्तैदी रहती, अधिक बारिश के बाद भी जान-माल के नुकसान को कम किया जा सकता था. व्यवस्थागत कमियों को दूर करने के साथ केंद्र और राज्य सरकारों को दीर्घकालिक नीतिगत पहल पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. जलवायु परिवर्तन के कारण बहुत अधिक बारिश होने और सूखा पड़ने की बारंबारता कुछ दशकों से बढ़ती जा रही है. इसी के साथ लू और शीतलहर का कहर भी बढ़ा है.
भूजल के अंधाधुंध दोहन, वनों के क्षरण, बेतरतीब नगरीकरण, नदियों में बढ़ता गाद, प्रदूषण तथा तालाबों, झीलों व पानी जमा होने की जगहों के सिमटने से भी मौसम के तेवर पर असर पड़ा है. भारत उन देशों में है, जो जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान के सबसे अधिक प्रभावित हैं. वित्त वर्ष 2018-19 में मौसम में भारी उलट-फेर की वजह से 24 सौ से अधिक जानें गयी थीं.
हालांकि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन चुनौतियों का सामना करने के लिए कदम उठाये जा रहे हैं, पर समस्या की गंभीरता के हिसाब से ये नाकाफी हैं. देश के अधिकतर इलाकों में तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है और उत्तर व पश्चिम के शहर प्रदूषण से भी त्रस्त हैं.
ऐसे में सबसे पहले नगरीकरण पर ध्यान देने की जरूरत है. इसके साथ वनों और भूमि के क्षरण को रोकने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. नदियों, बांधों, खदानों और जंगलों के मसले पर पर्यावरणविदों की राय भी सुनी जानी चाहिए. वर्षा व भूजल के संग्रहण के साथ मौसम के प्रति अनुकूलता के पहलू पर भी विचार होना चाहिए.