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निर्णय आसान नहीं

दक्षिण-पूर्व एशिया और हिंद-प्रशांत प्रशांत के 16 देशों के बीच महत्वाकांक्षी मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत अपने अंतिम चरण में है. अब तक इन देशों के बीच 28 उच्च-स्तरीय बैठकें हो चुकी हैं और माना जा रहा है कि अगले सप्ताह थाईलैंड में कोई ठोस फैसला लिया जा सकता है. इसी बीच चीन के राष्ट्रपति […]

दक्षिण-पूर्व एशिया और हिंद-प्रशांत प्रशांत के 16 देशों के बीच महत्वाकांक्षी मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत अपने अंतिम चरण में है. अब तक इन देशों के बीच 28 उच्च-स्तरीय बैठकें हो चुकी हैं और माना जा रहा है कि अगले सप्ताह थाईलैंड में कोई ठोस फैसला लिया जा सकता है. इसी बीच चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के लिए भारत आनेवाले हैं. ऐसे में इस मसले पर हुई वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों की बैठक का महत्व बहुत बढ़ जाता है.

सूत्रों के मुताबिक, व्यापार समझौते पर भारत के रुख को अंतिम रूप देने के लिए गृह मंत्री अमित शाह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, विदेश मंत्री एस जयशंकर, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल तथा इसी मंत्रालय के राज्य मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने बातचीत की है. हालांकि इस बैठक के निर्णयों की जानकारी नहीं है, पर यह जरूर कहा जा सकता है कि प्रस्तावित समझौते में शामिल देशों की मांगों को मानना भारत के लिए आसान नहीं होगा.
वे देश चाहते हैं कि चीन से आयातित 74 से 80 फीसदी, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से 86 फीसदी तथा जापान, दक्षिण कोरिया और आसियान देशों की 80 फीसदी वस्तुओं पर से भारत या तो आयात शुल्क हटा ले या उनमें कटौती करे. दक्षिण कोरिया और भारत का पहले से भी एक समझौता है. चूंकि समझौते के 16 में से चीन, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया समेत 11 देशों के साथ भारत का व्यापार संतुलन घाटे में है.
ऐसे में अधिकतर आयात से शुल्क हटाना या कम करना नुकसान का सौदा हो सकता है तथा इससे घरेलू उद्योगों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है. अनेक उद्योगों ने सरकार से इन शर्तों को नहीं मानने का आग्रह किया है. केंद्रीय मंत्री जयशंकर और गोयल लगातार कहते रहे हैं कि समझौते पर सहमति देते हुए राष्ट्रीय हितों की अनदेखी नहीं होगी.
शुल्कों के कम होने के साथ भारतीय बाजार में आयातित वस्तुओं की भरमार की चिंता गंभीर है. उत्पादन, उपभोग और रोजगार की कमी से जूझती अर्थव्यवस्था के लिए ऐसी स्थिति खतरनाक हो सकती है. चीन ने वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर स्वयं को एक बड़े आर्थिक केंद्र के रूप में स्थापित कर लिया है और उसके साथ भारत का व्यापार घाटा 55-60 अरब डॉलर सालाना के दायरे में है.
उसे अगर और भी छूट मिली, तो हमारे बाजार में उसकी पैठ लगातार मजबूत होती जायेगी. यह न तो हमारे आर्थिक हित में है और न ही रणनीतिक हित में. इस स्थिति में समझौते के प्रस्तावों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है, लेकिन इससे बाहर रहने के विकल्प को सिरे से नकार दिया जाना चाहिए.
इस संदर्भ में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ऐसे बहुपक्षीय वाणिज्यिक व्यवस्था में भागीदारी से भारतीय उत्पादों के लिए भी बड़ा बाजार उपलब्ध हो सकता है तथा यदि भारतीय उद्योगों और उद्यमों का ध्यान क्षमता एवं गुणवत्ता को बढ़ाने पर रहे, तो विकास व समृद्धि को बड़ा आधार मिल सकता है.

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