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आज के महिषासुर का वध

पवन के वर्मा, लेखक एवं पूर्व प्रशासकदुर्गा सप्तशती (400-600 ई.) इस बिंदु पर निस्संकोच रूप से बल देती है. दुर्गा, पार्वती की प्रतिरूप, शिव की अर्द्धांगिनी, इस ब्रह्मांड की सर्वोच्च सत्ता तथा सृजनकर्ता हैं. उनके बिना शिव जड़ हैं. शिव सर्वव्यापी, सर्वदर्शी, ब्रह्मण के सर्वज्ञ प्रतिनिधि, निर्गुण, निर्विशेष चेतना, जो अदृश्य, अचिंत्य तथा अखंड रूप […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 8, 2019 10:03 AM

पवन के वर्मा, लेखक एवं पूर्व प्रशासक
दुर्गा सप्तशती (400-600 ई.) इस बिंदु पर निस्संकोच रूप से बल देती है. दुर्गा, पार्वती की प्रतिरूप, शिव की अर्द्धांगिनी, इस ब्रह्मांड की सर्वोच्च सत्ता तथा सृजनकर्ता हैं. उनके बिना शिव जड़ हैं. शिव सर्वव्यापी, सर्वदर्शी, ब्रह्मण के सर्वज्ञ प्रतिनिधि, निर्गुण, निर्विशेष चेतना, जो अदृश्य, अचिंत्य तथा अखंड रूप से समस्त ब्रह्मांड में स्पंदित हैं. पर ब्रह्मण में प्रच्छन्न शक्ति से हीन वह शक्तिहीन हैं. दुर्गा वह अपराजेय, अभेद्य शक्ति हैं, जो शिव को प्रकट होने के योग्य बनाती हैं. इस बोध में, वे शिव की समानता में हैं.

इस मौलिक दार्शनिक संरचना को पौराणिक कथाओं ने और भी शक्तिशाली स्वरूप प्रदान किया है. पौराणिक दुर्गा प्रशांत, मितभाषी, अंतर्मुखी, निष्क्रिय अथवा दुर्ग्राह्य देवी नहीं हैं. सर्वोच्च सर्जक के अर्थ में, वे योद्धा देवी के रूप में वर्णित हैं, जो सिंहवाहिनी, अष्ट अथवा अष्टादश भुजा हैं, जिनमें से प्रत्येक में अशुभ के दमन तथा शुभ के विजय हेतु कोई न कोई अस्त्र-शस्त्र है. महिषासुर देवताओं के विरुद्ध एक अविराम युद्ध में संलग्न है. उसे पराजित करने में असमर्थ रहकर देवगण दुर्गा से प्रार्थना करते हैं. अंततः, वे इस लक्ष्य को अपने हाथों में लेती हैं. सिंह पर सवार वे अपने निश्चय में अडिग एवं अपनी युद्ध शक्ति में अपराजेय हैं. जो अपने रास्ते बदल ले, उन्हें वे क्षमा करने को भी तैयार हैं, पर जो उनकी दया के अपात्र हैं, उनके समक्ष वे अनम्य हैं.

यदि दर्शन तथा पौराणिक कथाओं में दुर्गा को यह उच्च स्थान प्रदत्त है, तो आज हम-आप जिस सजीव जगत के हिस्से हैं, उसमें उसकी क्या स्थिति है? क्या हिंदू-और समग्र रूप से सभी भारतीय-नारियों को उस श्रद्धा का एक अंश भी देने को तैयार हैं, जिसे वे दुर्गा को देते हैं? क्या एक ओर दुर्गा के देवीकरण और दूसरी ओर समाज में नारियों के प्रति श्रद्धा में तनिक भी सामंजस्य है? अथवा क्या हम मनोरोगियों के एक राष्ट्र हैं, जो एक देवी के समक्ष तो नतमस्तक होता है, पर मानवी रूप में उन नारियों के साथ दुर्व्यवहार करने में कोई विरोधाभास नहीं पाता, जो सैद्धांतिक रूप से स्वयं देवी की ही प्रतिनिधि हैं? इन प्रश्नों के उत्तर टाले नहीं जा सकते. उनके उत्तर देने को इनकार करना यह स्वीकार करने के समान होगा कि दार्शनिक आस्था तथा धार्मिक विधानों का वास्तविक व्यवहार से कुछ भी लेना-देना नहीं है. यह इसे स्वीकार करने के समान है कि सिद्धांत तथा बर्ताव के बीच किसी तारतम्य की कोई जरूरत नहीं है. जब जन-जन श्रद्धा से उनके आगे नतमस्तक हो, तो एक देवी के रूप में दुर्गा ब्रह्मांड पर शासन कर सकती हैं, पर मानवीय रूप में देवी का सामना ऐसे पुरुषों-और हैरतभरे ढंग से ऐसी महिलाओं से भी-होता है, जो उसके हितों का विरोध करने में तन कर खड़े हैं.

आज जब हम दुर्गा पूजा के आनंदपूर्ण उत्सव के एक और आयोजन में लगे हैं, एक पल को रुककर ईमानदारी से इसकी परीक्षा करें कि धर्म के स्तर पर नारी शक्ति के महिमामंडन, जबकि समाज के स्तर पर नारियों के प्रति हमारे कर्तव्य की अवमानना के बीच की खाई कितनी बड़ी है? देवी दुर्गा एवं हमारे पड़ोस की नारी दुर्गा के बीच क्या कहीं कोई मिलनबिंदु है? अथवा, क्या वे एक दूजे से दो ध्रुवों की दूरी पर हैं, जहां एक तो उच्च बेदी पर स्थापित है, जबकि दूसरी सामाजिक सीढ़ी के सर्वाधिक निम्न पायदान पर स्थित है?

कुछ तथ्यों को लें, तो वर्ष 2017 में विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) के लैंगिक विषमता सूचकांक पर भारत का स्थान 21 पायदान पिछड़ कर बांग्लादेश तथा चीन के भी नीचे आ गया, जिसका प्रमुख कारण अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी में हमारे पहले से ही घटिया प्रदर्शन का और भी नीचे आ जाना तथा उन्हें कम पारिश्रमिक दिया जाना है. विधायिकाओं, वरीय प्रबंधन पदों, नौकरशाही जैसे निर्णय लेनेवाले शीर्ष निकायों, तथा पेशेवर एवं तकनीकी क्षेत्रों में महिलाओं के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के सुधार में लगभग कोई भी प्रगति नहीं हो सकी है. काम के समान घंटों के लिए पारिश्रमिक के भुगतान में तो यह विषमता ज्वलंत है. डब्ल्यूईएफ के अनुसार, सच्चाई यह है कि हमारे देश में महिलाओं के 66 प्रतिशत कार्यों के लिए उन्हें कोई भुगतान नहीं होता, जबकि केवल 12 प्रतिशत पुरुषों के मामले में ही ऐसा होता है.

स्वास्थ्य, शिक्षा, कार्यस्थल पर बर्ताव एवं राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामलों में भी हमारे देश की महिलाएं सर्वेक्षण में शामिल 144 देशों में निम्न स्थान पर ही हैं. आर्थिक भागीदारी के सूचकांक पर हम 137वें पायदान पर हैं, जबकि उत्तरजीविता (सरवाइवल) सूचकांक पर हमारी स्थिति 144वीं है. डब्ल्यूईएफ के अनुसार, इस भीषण लैंगिक विषमता को पाटने में भारत को सौ वर्ष लगेंगे!

ऐसा लगता है कि हमारा पुरुष-प्रधान राजनीतिक वर्ग यह नहीं चाहता कि विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो. तथ्य यह है कि महिला आरक्षण विधेयक, जो लोकसभा तथा देश की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने हेतु देश के संविधान में संशोधन के उद्देश्य से लाया गया था, राज्यसभा से मार्च 2010 में ही पारित होने के बावजूद लोकसभा की स्वीकृति के अभाव में कालातीत (लैप्स) हो गया.

जहां तक महिलाओं के विरुद्ध शारीरिक हिंसा का सवाल है, वह बढ़ती ही जा रही है. क्राइ (सीआरवाई) जैसा प्रतिष्ठित एनजीओ यह कहता है कि भारत में एक बालिका के साथ प्रति 15 मिनट में एक यौन अपराध घटित होता है और पिछले दस वर्षों में नाबालिगों के विरुद्ध अपराधों में पांच गुनी बढ़ोतरी हुई है. राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के मुताबिक बलात्कार भारत में महिलाओं के विरुद्ध चौथा सर्वाधिक सामान्य अपराध है. बालिका भ्रूणहत्या के घृणास्पद दस्तूर का व्यापक प्रचलन अभी भी जारी है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, प्रत्येक 100 महिलाओं पर 108.9 पुरुष की संख्या इसे सिद्ध कर देती है.

पर हर चीज नकारात्मक ही नहीं है. महिलाओं, खासकर आर्थिक रूप से स्वावलंबी महिलाओं में आज एक नया स्वाग्रह है. पहले से अधिक बालिकाएं स्कूल भेजी जा रही हैं तथा एक स्तर पर लड़के-लड़कियों के बीच का अंतर उल्लेखनीय रूप से घटा है. सरकार एवं कॉरपोरेट क्षेत्र दोनों में हमारे कई राष्ट्र स्तरीय संस्थानों के शीर्ष पर महिलाएं आसीन हैं. हमारे यहां महिलाओं ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीशों के अलावा विदेश, रक्षा, वित्त मंत्री जैसे पदों को बखूबी संभाला है. वे विमान उड़ा रही हैं, रक्षा सेवाओं, पुलिस तथा सशस्त्र बल जैसे उनके लिए अब तक निषिद्ध माने जानेवाले क्षेत्रों में कमाल दिखा रही हैं इसके अलावा, कुछ स्वागत योग्य अन्य संस्थागत कदम भी उठाये गये हैं, जैसे पंचायतों में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण एवं बिहार सहित कई राज्यों में उनके लिए सरकारी सेवाओं में भी आरक्षण, इत्यादि. राष्ट्रीय स्तर पर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे अभियानों से भी महिलाओं को उनका देय कुछ हद तक मिल सका है.

इस तरह, क्या दुर्गा आज उदीयमान हैं अथवा अभी भी उसी आदिम, मध्ययुगीन, पुरुष-प्रधान मानसिकता की कैदी हैं, जो एक देवी को पूजने, पर उस प्रजाति पर अत्याचार करने में कोई विरोधाभास नहीं पाता, जो दुर्गा की उत्कृष्ट शक्तियों का सर्वोत्तम प्रतिनिधित्व करती है? मैं समझता हूं कि इस प्रश्न को गंभीर आत्ममंथन की दरकार है. महिषासुर आज उन शक्तियों का प्रतिनिधि है, जो महिलाओं को सताती हैं. आज की दुर्गा को उसे दंडित करना ही चाहिए. इस उत्सव अवधि में हम प्रार्थना करें कि सिंहवाहिनी देवी पुरुषों तथा समाज के द्वारा कमजोर समझी जाने वाली प्रजाति पर पाखंड, दुहरे प्रतिमानों, पूर्वाग्रहों, भेदभाव, एवं हिंसा के महिषासुर का शीघ्र वध करें. दुर्गा, जो सृजनकर्ता और हमारे जीवन की सर्वोच्च शासक शक्ति हैं, आज आक्रमण को तैयार बैठी हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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