बिहार और झारखंड, दोनों ही राज्यों में पलायन बडी समस्या है. पलायन के नाम पर दोनों ही राज्यों में मानव तस्करी होती है. बाल मजदूरों की भी ये दोनों राज्य बहुत बडी मंडी हैं. ताजा उदाहरण जयपुर के एक चूडी कारखाने से बिहार के 176 बच्चे मुक्त कराने का है.
मुक्त कराये गये कुछ बच्चे तो चार-पांच साल बाद घर लौटे हैं. जयपुर से लौटे बच्चों की कहानी बेहद दर्दनाक है इन बच्चों को चालीस रुपये दिहाडी पर 13 घंटे काम कराया जा रहा था.
नींद आने पर कारखाना मालिक इनकी आंखों पर चूडी का गुच्छा चला देता था. इन्हें एक ही कमरे में रख दिया जाता था, जहां ये ठीक से सो भी नहीं पाते थे. इन बच्चों की मजबूरी ये रही कि इनके परिवारों के पास न काम था, न पेट भरने का इंतज़ाम. कागजी रिपोर्ट, आर्थिक सर्वे, मानव इंडेक्स, जीवन स्तर, महिला बाल कल्याण के ऊंचे-ऊंचे ग्राफ खींचनेवाले इस मजबूरी को खारिज कर देंगे.
उनका तर्क होगा कि मां-बाप ज्यादा कमाई के लालच में बच्चों को बाहर भेज देते हैं. यदि ऐसा है तो मां-बाप पर मामला दर्ज क्यों नहीं होता? कारण साफ है, ये बच्चे रोटी के इंतज़ाम के लिए ही भेजे जाते हैं, इनका लालच सिर्फ जिंदगी बचाये रखना है और कुछ नहीं. सवाल इनके परिवारों पर नहीं, सबका विकास के दावा करनेवालों पर है.
आखिर सबको रोजगार, सस्ता अनाज, मुफ्त इलाज, मुफ्त शिक्षा, बिजली, पानी की योजनाएं कहां चलायी जा रही हैं? अरबों रुपये खर्च होने के बाद भी प्रदेश में ऐसे हालात क्यों हैं? क्यों देश भर में हमारे यहां के बच्चे मजदूरी करने को मजबूर हैं? जरूरी है कि योजनाओं की फिर से समीक्षा की जाये.
इसमें आंकं के बजाय हकीकत पर काम हो. जिस भी जिले में ऐसे मामले मिलें, वहां के अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की जाये. उनसे पूछा जाये कि इतनी योजनाओं और सरकार का पैसा खर्च होने के बाद भी ये बच्चे बाहर जाकर काम करने को मजबूर क्यों हुए? दूसरा बदलाव नजरिए में होना चाहिए.
शहरों के विकास को ही देश का विकास मान लेने का नतीजा है ये. पिछले दस सालों में बडी विकास योजनाएं सिर्फ शहरी क्षेत्रों तक सीमित रह गयी हैं. सड़क, पुल-पुलिया का निर्माण जरूरी है, पर बिना मानव संसाधन के विकास के ये सब अधूरा ही रहेगा.