हाय मेरे बीते हुए दिन!
क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार kshamasharma1@gmail.com हाल ही में मेरा गांव जाना हुआ था. गांव के घर अब वैसे नहीं रहे, जैसे कि हमारे बचपन में हुआ करते थे. वहां भी शीशे के बने अब छोटे-छोटे माॅल उग आये हैं. घरों में कपड़े धोने की मशीन से लेकर, फ्रिज, मिक्सी, गैस, एसी, टीवी जैसी सभी चीजें […]
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
kshamasharma1@gmail.com
हाल ही में मेरा गांव जाना हुआ था. गांव के घर अब वैसे नहीं रहे, जैसे कि हमारे बचपन में हुआ करते थे. वहां भी शीशे के बने अब छोटे-छोटे माॅल उग आये हैं.
घरों में कपड़े धोने की मशीन से लेकर, फ्रिज, मिक्सी, गैस, एसी, टीवी जैसी सभी चीजें वहां मौजूद हैं. घरों के बाहर बने चबूतरे, जो बुजुर्गों के बैठने-बतियाने और गप्पे हांकने के ठिकाने होते थे, अब विदा हो चुके हैं. महिलाओं को भी अब ढोलक लेकर गाने-बजाने, नाचने में कोई दिलचस्पी नहीं रही. जब टीवी, रेडियो, मोबाइल आदि पर संगीत आसानी से उपलब्ध है, तो आखिर क्यों गाया-बजाया जाये.
मैंने खुद से पूछा कि आखिर मैं गांव को वैसा ही क्यों बने रहने देना चाहती हूं, जैसा वह मेरे बचपन में था? मैं बदल गयी, गांव छोड़ शहर चली गयी, तो गांव क्यों न बदलें? वहां के युवा रोजगार और शिक्षा की तलाश में बाहर क्यों न जायें? अगर वे न लौटें, तो शिकायत भी क्यों? क्या मैं कभी लौटी?
दरअसल, ये सब सिर्फ मेरे ही दिल की बातें नहीं हैं, हम में से अधिकतर जो गांव छोड़कर शहर में जा बसे हैं, वे जब भी गांव लौटते हैं, अकसर पहले जैसा कुछ खोजते हैं. जबकि इस दौरान पीढ़ियां बदल गयी होती हैं.
हमें रहट, कुएं, बैलगाड़ियां, कच्चे रास्ते, छप्पर आदि अपने बचपन, जीवन और गांव के अनिवार्य हिस्से के रूप में याद आते हैं. लगता है कि गांव वैसे ही बने रहें, जैसे हम छोड़कर गये थे. मजेदार तो यह है कि हमें तो सारी सुख-सुविधाएं चाहिए, नौकरियां और उच्च शिक्षा चाहिए, मगर गांव में कभी कुछ नहीं बदलना चाहिए. वह हमारे मानसिक विलास और अतीत कामना के रूप में वैसे के वैसे बने रहने चाहिए, जैसे कि हम उन्हें देखना चाहते हैं. आखिर दूसरों को आगे बढ़ने, शहर जाने और सुविधाएं पाने का हक क्यों नहीं? हम गांव को हमेशा बदहाल ही क्यों देखना चाहते हैं?
रहट की आवाज, कुएं पर गीत गाती महिलाएं, फसल बोते हुए मेघा को पुकारते किसानों के फिल्मी दृश्य हमारी स्मृतियों में समाये हुए हैं. हर समय पुरानी चीजों को खोजना इसी अतीत प्रेम का हिस्सा है. आखिर वह अतीत इतना अच्छा था, तो हम वहां से भागे क्यों? जाहिर है कि अपनी रोजी-रोटी और जरूरतें वहां पूरी नहीं होती थीं. जीवन में कुछ करना था, तो वहां जाना था, जहां अवसर मिल सकें.
पिछले दिनों एक मित्र ने कहा कि गांवों में अब कोई टोकरियां नहीं बुनता. महिलाओं को अब इन कामों में दिलचस्पी नहीं रही. मित्र भूल गये कि घास-फूस आदि से बनी टोकरियों की बजाय गांव में भी अब प्लास्टिक की टोकरियां आसानी से उपलब्ध हैं.
पहले के दौर में टोकरियां बनाने में जितना समय और श्रम लगता था, सस्ते दामों पर मिली प्लास्टिक की टोकरी में वह समय नहीं लगता. फिर पीढ़ियों का बदलाव भी महसूस किया जाना चाहिए. गांव में जो युवा स्त्रियां हैं, वे पढ़ी-लिखी हैं और उसी पीढ़ी की भी हैं, जिस उम्र में हम लोगों के बच्चे हैं. दादी-नानी की वह पीढ़ी वक्त के साथ लुप्त हो चुकी है, जो हमें अपने बीते हुए कल की याद दिलाती है.