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नजीर पेश करने का दादा में दम
अभिषेक दुबे खेल पत्रकार abhishekdubey1975@gmail.com सौरव गांगुली और भारतीय क्रिकेट का अजीबो-गरीब रिश्ता है. जब गांगुली पहली बार एकदिवसीय टीम का हिस्सा बने, तो उन पर आरोप लगा कि वे खुद को महाराज समझते हैं और उन्होंने मैदान में ड्रिंक्स ले जाने से मना कर दिया. उन्हें दोबारा टीम में आने के लिए चार साल […]
अभिषेक दुबे
खेल पत्रकार
abhishekdubey1975@gmail.com
सौरव गांगुली और भारतीय क्रिकेट का अजीबो-गरीब रिश्ता है. जब गांगुली पहली बार एकदिवसीय टीम का हिस्सा बने, तो उन पर आरोप लगा कि वे खुद को महाराज समझते हैं और उन्होंने मैदान में ड्रिंक्स ले जाने से मना कर दिया.
उन्हें दोबारा टीम में आने के लिए चार साल तक इंतजार करना पड़ा. जब वह टेस्ट टीम में चुने गये, तो उन पर पिछले दरवाजे से आने का आरोप लगा. उन्होंने पहले ही मैच में शतक लगाकर विरोधियों को शांत कर दिया. जब वह टीम इंडिया के कप्तान बने, तो मैच फिक्सिंग का साया भारतीय क्रिकेट में चरम पर था और आलोचकों ने लिखा- कप्तान कब तक? लेकिन सौरव भारत के सबसे कामयाब कप्तान साबित हुए. जिस ग्रेग चैपल को कोच बनाने में सौरव की अहम भूमिका रही, उसी गुरु ग्रेग ने उन्हें बाहर का दरवाजा दिखाया.
लोगों ने कहा गांगुली की वापसी नामुमकिन है. लेकिन उन्होंने टीम में जोरदार वापसी की. आज जब वह भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) का अध्यक्ष बने हैं, तो लोग सवाल कर रहे हैं- ग्यारह महीने में वह क्या करेगा?
बतौर बीसीसीआई अध्यक्ष गांगुली के सामने कई चुनौतियां हैं. लेकिन, वह इनका सामना कर सकते हैं. इस संबंध में मेरा निजी अनुभव है. गांगुली जब गुरु ग्रेग से तकरार के बाद टीम से बाहर थे, तो एक दिन भावुक होकर मैंने उन्हें मैसेज भेजा- ‘आप हार नहीं मानना, वापसी जल्द होगी.’ कुछ सेकेंड में गांगुली का जवाब आया- ‘हार मानना मेरी आदत नहीं. मैं जल्द वापसी करूंगा और क्या पता जिन्होंने मुझे बाहर भेजा है, वह खुद बाहर हो जायें.’ ये हैं सौरव चंडीदास गांगुली.
भारतीय चयन व्यवस्था पर सवालिया निशान हैं. यह सच है कि टीम इंडिया का हालिया प्रदर्शन बेहतरीन रहा है, लेकिन मौजूदा कोच रवि शास्त्री और कप्तान विराट कोहली के पास पूरी तरह से सत्ता का केंद्रीयकरण हो चुका है. ये अच्छे संकेत नहीं हैं. इसे दो तरीके से देखा जा सकता है.
अगर टीम इंडिया ने चेतेश्वर पुजारा, अजिंक्ये रहाणे, रोहित शर्मा और आश्विन जैसे खिलाड़ियों के भरोसे के साथ खिलवाड़ न कर सही टीम सलेक्शन किया होता, तो शायद ऑस्ट्रेलिया की तरह दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड टेस्ट सीरीज के परिणाम कुछ और होते. अगर भारत ने चार नंबर पर बल्लेबाजी को लेकर अजीब प्रयोग नहीं किया होता, तो शायद टीम इंडिया वर्ल्ड चैंपियन होती.
जिस तरह से अनिल कुंबले को खिलाड़ियों ने बाहर का रास्ता दिखा दिया और रवि शास्त्री की वापसी लाये, वह एक तख्तापलट तो माना जा सकता है, लेकिन आधुनिक विश्व में खेल के मैदान पर एक प्रगतिशील चैंपियन टीम की पहचान नहीं है. इस वक्त प्रदर्शन के नाम पर टीम इंडिया के पास बहुत कुछ है, लेकिन अभी और बहुत कुछ की जरूरत है. सौरव गांगुली इसी बहुत कुछ को पूरा कर सकते हैं, इसकी उम्मीद ज्यादा है.
युवराज, सेहवाग, हरभजन समेत सीनियर क्रिकेटरों के साथ जो बरताव हुआ है, उससे चयन व्यवस्था पर सवाल खड़ा होता है. अंबाती रायडू को जिस तरह बीच वर्ल्ड कप में संन्यास लेना पड़ा और धोनी के भविष्य को लेकर जो सवाल हैं, वह मौजूदा व्यवस्था की कलई खोल देता है. गांगुली के सामने इस व्यवस्था पर मौजूदा और सीनियर क्रिकेटरों का भरोसा बहाली एक बड़ी चुनौती होगी.
विश्व क्रिकेट में भारतीय क्रिकेट का अहम योगदान रहा है. सच है कि भारत को अपनी धाक का प्रयोग दबदबे के लिए नहीं करना चाहिए, लेकिन गांगुली में वह दमखम है, जिसकी वजह से विश्व क्रिकेट को भारत को दोबारा गंभीरता से लेने पर मजबूर होना पड़ेगा. तीन साल पर वर्ल्ड कप चैंपियंस ट्रॉफी को लेकर असमंजस और क्रिकेट के फैसलों को लेकर ढुलमुल रवैये का विश्व क्रिकेट को खासा नुकसान हुआ है और इन सभी मामलों में भारत को लीड लेने का वक्त आ चुका है.
बीसीसीआई में खामियां तो थीं, लेकिन यह पहले एक वाइब्रेंट बोर्ड था, जिसने भारतीय क्रिकेट को दुनिया की पहली पंक्ति में ला खड़ा किया. जगमोहन डालमिया, इंदरजीत सिंह बिंद्रा, शरद पवार समेत इसके अध्यक्षों ने इसे एक मजबूत ढांचा देने का काम किया.
श्रीनिवासन के हितों के टकराव ने इसे एक धक्का तो दिया था, लेकिन इस पर काम करने की जिम्मेदारी विनोद राय को मिली थी. लेकिन, कोई सफलता हाथ नहीं लगी और पहले की मजबूत व्यवस्था भी हिल गयी. फैसला लेने के नाम पर हर जिम्मेदारी विनोद राय खुद लेते थे या फिर राहुल जोहरी के पास जाकर रुक जाती थी. पहले जो फैसले हफ्ते में लिये जाते थे, उनमें अब महीने भी कम पड़ने लगे. इसलिए फैसलों में गति के साथ पारदर्शिता गांगुली के सामने एक बड़ी चुनौती होगी.
ऐसी चुनौतियां और हैं, मगर एक साल से कम का वक्त इनसे निपटने के लिए काफी नहीं है. लेकिन, खेलों में दो तरह की पारी होती है. एक, मैदान पर लंबी पारी, जिसमें रन का अंबार हो, जो एक खिलाड़ी का अपना हो. और दूसरी, वह छोटी पारी, जो मैच और क्रिकेट को देखने-समझने की दिशा और दशा बदल दे.
गांगुली ने बतौर कप्तान मैदान पर कई पारियां खेली हैं और निर्णायक फैसले लिये हैं. अब बीसीसीआई के मुखिया के तौर पर उनसे ऐसी पारी का इंतजार है, जो आनेवाले वक्त में नजीर बने. अपने करियर की शुरुआत से ही सौरव गांगुली का भारतीय क्रिकेट के साथ एक अलहदा रिश्ता रहा है. बस उन्हें दिखाना है कि दादा में अब भी बड़े फैसले लेने का दम है.
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