आर्थिक सुधार की दिशा में भारत
अजीत रानाडेसीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन हाल ही दो वैश्विक रैंकिंग की घोषणाएं की गयीं. पहली, विश्व बैंक द्वारा वर्ष 2019 के लिए ‘कारोबार करने’ पर प्रकाशित रिपोर्ट है, जिसे पहले ‘कारोबारी सुगमता’ कहा जाता था. इसमें भारत पिछले वर्ष के 77वें स्थान से छलांग लगाकर इस वर्ष 63वें पायदान पर पहुंच गया. पिछले पांच वर्षों […]
अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
हाल ही दो वैश्विक रैंकिंग की घोषणाएं की गयीं. पहली, विश्व बैंक द्वारा वर्ष 2019 के लिए ‘कारोबार करने’ पर प्रकाशित रिपोर्ट है, जिसे पहले ‘कारोबारी सुगमता’ कहा जाता था. इसमें भारत पिछले वर्ष के 77वें स्थान से छलांग लगाकर इस वर्ष 63वें पायदान पर पहुंच गया. पिछले पांच वर्षों के अंदर भारत इस रैंकिंग में 142वीं से 63वीं सीढ़ी तक जा चढ़ा है, जो पीएम मोदी द्वारा वर्ष 2020 तक शीर्ष 50 देशों के वर्ग में शामिल होने के लक्ष्य के अनुरूप ही है.
इस रैंकिंग में भारत लगातार तीन वर्षों से दस शीर्ष सुधारकर्ताओं में शुमार होता रहा है. इसका संकेत यह है कि यदि हम प्रतिवर्ष दसियों लाख जॉब सृजित करना चाहते हैं, तो हमें लाखों नहीं, तो कम से कम हजारों नये उद्यम आरंभ करने होंगे.
यह रैंकिंग हमें यही बताती है कि हमारे विनियमन कितने कारोबार हितैषी हैं. निर्माण परमिट प्राप्त करने अथवा साख तथा बिजली कनेक्शन हासिल करने की सुगमता जैसे बाजार समर्थक सुधारों पर केंद्रित रहते हुए इस रैंकिंग पर हम तेजी से ऊपर आ सके हैं. पर सबसे बड़ा सुधार ‘दिवाला एवं दिवालियापन संहिता’ रही, जो अव्यवहार्य उद्यमों की पुनर्संरचना या उनके समापन में मदद करती है.
इस कोड की मौजूदगी मात्र से ‘साख अनुशासन’ में भी सुधार संभव हो सका है. यदि हम इस रैंकिंग को दस सांचों में बांट दें, तो भारत उनमें से सात में स्वयं को सुधारने में सफल रहा है, जिनमें ‘दिवाला निष्पादन,’ ‘सीमा पारीय व्यापार’ तथा ‘कराधान’ शामिल हैं. कॉरपोरेट आय कर में तेज गिरावट की हालिया घोषणा हमें इस रैंकिंग में और भी ऊपर ले जायेगी.
मगर ‘एक नया कारोबार शुरू करने’ के क्षेत्र में हमारी प्रगति धीमी है. इस हेतु आवश्यक परमिटों एवं निबंधनों की तादाद और खासकर उनकी प्रक्रिया अभी भी बोझिल है. इस दिशा में, विनियमनों की संख्या नहीं, उनके अनुपालन की रफ्तार तथा सुविधा अहम होती है.
स्विट्जरलैंड या सिंगापुर जैसे इस सांचे के शीर्ष देशों में विनियमनों की तादाद कोई कम नहीं है, पर उनके अनुपालन की प्रक्रिया सुस्पष्ट तथा पहले से ही समझी जा सकनेवाली है. इस मुद्दे पर हमें अभी बहुत कुछ करना है. चूंकि इस रैंकिंग हेतु उद्यम नमूने के संग्रहण का कार्य एक अत्यंत सीमित स्थल में ही किया जाता है, अतः हमें अपनी रैंकिंग में सुधार के साथ ही आत्मतुष्ट नहीं होना चाहिए.
नीति आयोग ने देश के विभिन्न राज्यों में कारोबारी सुगमता की माप एवं उनकी तुलना हेतु एक अलग क्रियाविधि तय कर रखी है, जिससे एक उपयोगी और पूरक तस्वीर उभरती है. साफ है कि इस रैंकिंग के बाद भी हमें खासकर लघु तथा मध्यम उद्यमों के लिए जमीनी हकीकत में बेहतरी लाने हेतु एक लंबी दूरी तय करनी होगी.
हाल ही घोषित एक दूसरी रैंकिंग ‘वैश्विक भूख सूचकांक’ (जीएचआई) है. ‘कारोबारी सुगमता’ रैंकिंग की ही तरह यह भी पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित होती रही है, पर पहली के विपरीत इसकी प्रक्रिया में पिछले कुछ वर्षों के अंदर बदलाव आया है, जबकि इसके लिए लिये जानेवाले देशों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है.
सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इस वर्ष लिये गये कुल 117 देशों में भारत का स्थान 102 है, जो श्रीलंका (66), बांग्लादेश (88) और पाकिस्तान (94) से भी पीछे है. इस सूचकांक में कुल चार घटक हैं, जिनमें पोषण अल्पता, बाल व्यर्थता (वेस्टिंग), बाल बौनापन (स्टंटिंग) एवं बाल मृत्यु जैसे तीन घटक बाल भूख को संबोधित हैं.
मसलन, यह रिपोर्ट कहती है कि भारत में 23 माह के अंदर के केवल 9.6 प्रतिशत बच्चे ही पर्याप्त पोषण पाते हैं. कारोबारी सुगमता के ठीक विपरीत भारत की भूख तथा कुपोषण रैंकिंग लगातार नीचे जा रही है.
स्वयं भारत का ‘व्यापक राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण’ (सीएनएनएस), जो 30 राज्यों के एक लाख से भी ज्यादा बच्चों के नमूने पर आधारित है, इस रिपोर्ट की पुष्टि करता है. सीएनएनएस एक समावेशी, सांख्यिकीय रूप से मजबूत सर्वेक्षण है, जो बौनापन एवं व्यर्थता, सूक्ष्म पोषकों, रोग प्रचलन एवं आहार जैसी तफसीलों तक जाता है. इसकी एक हैरतभरी खोज यह है कि भारत के 29 राज्यों के बीच अपेक्षतया समृद्ध राज्य बाल भूख एवं पोषण के मामले में पीछे हैं.
इसके अनुसार, पूर्वोत्तर राज्य तथा केरल में सर्वाधिक स्वस्थ बच्चे रहते हैं, जबकि गुजरात के बच्चे सर्वाधिक अस्वस्थ हैं. वैश्विक भूख सूचकांक पर हमारी रैंकिंग यह बताती है कि भारत के बच्चों का स्वास्थ्य स्पष्टतः अत्यंत असंतोषजनक है. इसकी क्रियाविधि पर नीति आयोग की ओर से यह टिप्पणी की गयी कि भारत द्वारा बाल बौनापन एवं बाल मृत्यु के मामलों में की गयी प्रगति को इस रिपोर्ट में नजरअंदाज किया गया है. आयोग ने सीएनएनएस के आधार पर जीएचआई के निष्कर्षों में कुछ विसंगतियां उजागर की हैं.
सीएनएनएस के मुताबिक, भारत में बाल बौनापन 38.4 प्रतिशत से घटकर 34.7 प्रतिशत हो गया है, व्यर्थता 21 प्रतिशत से कम होकर 17.3 प्रतिशत पर आ गयी है, जबकि वजन अल्पता भी 35.7 प्रतिशत की तुलना में 33.4 प्रतिशत तक कम हो चुकी है. ये आंकड़े उत्साहवर्धक होते हुए भी हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका अथवा अपने ही देश के अरुणाचल प्रदेश या असम जैसे राज्यों से काफी पीछे हैं.
स्थिति यह है कि एक वैश्विक रैंकिंग जहां हमें जश्न मनाने का मौका देती है, वहीं दूसरी एक चिंताजनक स्थिति की ओर संकेत करती है. अगले पांच वर्षों के लिए हमारा लक्ष्य अपनी अर्थव्यवस्था को पांच लाख करोड़ डॉलर की ऊंचाई तक पहुंचाने का है,
ताकि प्रत्येक भारतवासी एक समावेशी वृद्धि से लाभान्वित हो सके. किंतु वह वृद्धि अपने आप में कोई उद्देश्य नहीं, बल्कि देशवासियों के जीवन में बेहतरी लाने का एक साधन मात्र है. इस अर्थ में, कारोबारी सुगमता जहां सिर्फ एक इनपुट पैमाना है, वहीं बाल भूख सूचकांक एक आउटपुट माप है.
हम इनपुट में इसलिए बेहतरी लाते हैं, ताकि अंततः आउटपुट (सेहत, खुशहाली, जीवन स्तर, विषमता-अल्पता) में भी बेहतरी आ सके. जहां हम कारोबार हितैषी, जॉब एवं आजीविका समर्थक आर्थिक सुधार लाने की दिशा में निरंतर प्रयत्नशील हैं, वहीं हमें आउटपुट माप को भी दृष्टि से ओझल नहीं होने देना चाहिए. इन दो वैश्विक रैंकिंगों का संयोगवश एक साथ आना हमें अपनी प्राथमिकताएं सही करने को सजग करता है.
(अनुवाद: विजय नंदन)