आचार्य नरेंद्र देव जयंती : भारतीय समाजवाद के पितामह

कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार kp_faizabad@yahoo.com भारतीय समाजवाद के दुर्दिन में उसके वारिसों के लिए उसके पितामह की दिखायी गयी राह पर चलना तो दूर की बात, उन्हें याद करना भी असुविधाजनक हो जायेगा, इसकी अभी कुछ साल पहले तक कल्पना भी नहीं की जाती थी. जी हां, उन्हीं आचार्य नरेंद्र देव को, जिन्होंने स्वतंत्रता […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 31, 2019 6:22 AM
कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
kp_faizabad@yahoo.com
भारतीय समाजवाद के दुर्दिन में उसके वारिसों के लिए उसके पितामह की दिखायी गयी राह पर चलना तो दूर की बात, उन्हें याद करना भी असुविधाजनक हो जायेगा, इसकी अभी कुछ साल पहले तक कल्पना भी नहीं की जाती थी. जी हां, उन्हीं आचार्य नरेंद्र देव को, जिन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों में कांग्रेस में रहकर समाजवाद की अलमबरदारी की और स्वतंत्रता के बाद का जीवन कांग्रेस का समाजवादी विकल्प खड़ा करने में होम कर दिया, आज की तारीख में न कांग्रेस के महानायक जवाहरलाल नेहरू के वारिस ‘अपना’ समझते हैं, न ही समाजवाद के महानायक डाॅक्टर राममनोहर लोहिया के वारिस. उनकी जयंतियों व पुण्यतिथियों तक पर किसी को उनकी ज्यादा याद नहीं आती.
साल 2017 में जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव की सरकार थी, आचार्य की कर्मभूमि फैजाबाद स्थित वह ऐतिहासिक घर भी (जिसमें रहकर अध्ययन व चिंतन करते हुए वे इस निष्कर्ष तक पहुंचे कि मनुष्यमात्र की मुक्ति का एकमात्र रास्ता समाजवाद से होकर जाता है) बिक गया. तब समाजवादी जमातें यह भी ‘तय’ नहीं कर पायीं कि इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहरायें.
बहरहाल, आचार्य नरेंद्र देव पैदा भले ही 31 अक्तूबर, 1889 में सीतापुर में हुए थे, आगे चलकर फैजाबाद ही उनकी कर्मस्थली बना, जहां उनके दादा बरतनों के व्यवसायी थे. आचार्य दो ही साल के थे कि उनके दादा का निधन हो गया और वे पिता के साथ फैजाबाद चले आये. पिता वकील थे और चाहते थे कि बेटा भी वकालत पढ़े, लेकिन नरेंद्र देव को वकालत में ज्यादा रुचि नहीं थी. बाद में उन्होंने इस लिहाज से इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल की कि वकालत करते हुए स्वतंत्रता संघर्ष में सुविधापूर्वक भाग ले सकेंगे.
वक्त के थपेड़ों के बीच रहने को तो खैर अब वह फैजाबाद ही नहीं रह गया (क्योंकि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने उसे अयोध्या में बदल दिया), जहां 1915 से 1920 तक आचार्य ने वकालत की थी, लेकिन फैजाबाद स्थित उनका जो घर अब उनका नहीं रह गया, उसका भी एक समृद्ध इतिहास है.
वर्ष 1939 में फैजाबाद में पुरुषोत्तमदास टंडन की अध्यक्षता में प्रतिष्ठापूर्ण प्रांतीय साहित्य सम्मेलन हुआ, तो 15 नवंबर की शाम यह घर सम्मेलन में आमंत्रित कवियों के काव्यपाठ के दौरान आचार्य से लंबी चख-चख के बाद निराला द्वारा रात के कवि सम्मेलन के बहिष्कार का गवाह बना था और 19 फरवरी, 1956 को आचार्य के निधन के बाद भी लोग उसे ‘आचार्यजी की कोठी’ ही जानते थे. बत्तीस कमरों और एक सौ एक दरवाजों और खिड़कियों वाली इस कोठी की, जो वर्ष 1934 से 1937 तक समाजवादी राजनीति का बड़ा केंद्र रही, एक समय समाजवादी राजनीति में उसकी वही जगह थी, जो कांग्रेस की राजनीति में कभी इलाहाबाद के आनंद भवन की हुआ करती थी.
आचार्य नरेंद्र देव के घर का ही नहीं, उनके जीवन, यहां तक कि नाम का भी, ऐसे कई बदलावों से गुजरने का इतिहास है. उनका माता-पिता का दिया नाम अविनाशीलाल था, जिसे नामकरण संस्कार के वक्त नरेंद्र देव में बदल दिया गया था. बाद में काशी विद्यापीठ में उनके अभिन्न रहे स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता व साहित्यकार श्रीप्रकाश ने अपनी श्रद्धा निवेदित करने के लिए उन्हंे आचार्य कहना शुरू किया.
वर्ष 1944 में 20 अगस्त को इंदिरा गांधी पहली बार मां बनीं, तो नेहरू के अनुरोध पर आचार्य नरेंद्र देव ने उनके शिशु का नाम राजीव गांधी रखा. उनके दूसरे बेटे संजय का नामकरण भी आचार्य ने ही किया था. लेकिन 1989 में इन्हीं राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के तौर पर आचार्य की जन्मशती मनाने के प्रस्ताव को लेकर कोई उत्साह नहीं दिखाया.
राजीव गांधी यह भूल गये कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान वर्ष 1942 से 45 तक अहमदनगर किले में बंद रहे आचार्य ने उसी किले में बंद पंडित जवाहरलाल नेहरू को ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के लेखन में अपनी विद्वता का इतना ‘लाभ’ दिया था कि उन्होंने किताब की भूमिका में इसका उल्लेख भी किया. आचार्य नरेंद्र देव ने अपना ‘अभिधर्मकोश’ भी इसी किले में पूरा किया, जिस पर उन्होंने 1932 में बनारस की जेल में रहते हुए काम शुरू किया था.
इससे पहले वर्ष 1921 में जब गांधी जी का असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ, तो उन्होंने अपनी वकालत छोड़ दी थी. वे पहले लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में उनके क्रिया-कलापों को गति प्रदान करने में लगे रहे, फिर पंडित नेहरू और शिवप्रसाद गुप्त के बुलावे पर काशी विद्यापीठ चले गये. वहां उनके जीवन का ‘सबसे अच्छा हिस्सा’ व्यतीत हुआ, जिसमें पढ़ने-लिखने और राजनीति करने की अपनी दोनों मूल प्रवृत्तियों को उन्होंने एक साथ तुष्ट किया.
खराब स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय भागीदारी की और जेल यातनाएं सहीं. वर्ष 1942 में वे इतने गंभीर रूप से बीमार पड़े कि महात्मा गांधी को अपना मौनव्रत तोड़कर उनकी चिंता करनी पड़ी. फिर तो आचार्य चार महीनों तक उनके आश्रम में ही रहे. बाद में कांग्रेस में और उसके बाहर रहते हुए आचार्य नरेंद्र देव की राजनीतिक सक्रियताओं के आयाम कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से लेकर सोशलिस्ट पार्टी/प्रजा सोशलिस्ट पार्टी तक फैले.

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