जनसरोकार के बड़े नेता थे गुरुदास दासगुप्ता

सी सदाशिव पूर्व प्राध्यापक, डीयू delhi@prabhatkhabar.in 3 नवंबर 1936 – 31 अक्तूबर 2019 कॉमरेड गुरुदास दासगुप्ता नहीं रहे. उनके निधन के बाद सुबह से ही सोशल मीडिया पर खबरें आनी शुरू हो गयी थीं. देशभर में हर जगह से एक के बाद एक कॉमरेड और ट्रेड यूनियन नेता उनकी तस्वीर के साथ श्रद्धांजलि दे रहे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 1, 2019 6:35 AM
सी सदाशिव
पूर्व प्राध्यापक, डीयू
delhi@prabhatkhabar.in
3 नवंबर 1936 – 31 अक्तूबर 2019
कॉमरेड गुरुदास दासगुप्ता नहीं रहे. उनके निधन के बाद सुबह से ही सोशल मीडिया पर खबरें आनी शुरू हो गयी थीं. देशभर में हर जगह से एक के बाद एक कॉमरेड और ट्रेड यूनियन नेता उनकी तस्वीर के साथ श्रद्धांजलि दे रहे थे और लाल सलाम बोल रहे थे.
इस खबर ने उनके साथ बिताये दिनों की याद को अचानक ताजा कर दिया है. एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय में दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (डूटा) का धरना चल रहा था. उसमें गुरुदास दासगुप्ता को लाना था. उस समय डूटा के अध्यक्ष को लगा कि अगर मैं सीपीआइ का सदस्य हूं और मैं अपनी पार्टी के नेता को धरने में ले जाऊंगा, तो यह ठीक नहीं होगा. बहरहाल, मैं उनके कैनिंग लेन रोड स्थित घर से विश्वविद्यालय लाने के लिए चला गया. उस समय वह घर पर नहीं थे और मैं जानता था कि वह आयेंगे और यह भी कि उन्हें डूटा के धरने के बारे में पता है. जब वह आये, तो मैंने कहा कि कुछ खा लीजिए. फिर उन्हें आने की वजह बतायी और यह भी बताया कि डूटा अध्यक्ष ने कहा है कि आपके भाषण के बाद ही धरना समाप्त होगा.
इस पर उनका जवाब था- खाना नहीं खायेंगे, जल्दी से चाय पीते हैं और चल पड़ते हैं. ऐसे थे गुरुदास दासगुप्ता. उनके लिए जनता और जन कार्यवाही प्राथमिकता होती थी. यही स्पिरिट उन्हें बंगाल, गुड़गांव और अन्य कई जगहों पर मजदूरों के संघर्ष में खड़ा होने की ताकत देती थी. संसद सदस्य होने के बावजूद कभी वह हड़ताली मजदूरों के साथ-साथ संघर्ष करते हुए पुलिस की लाठियां खाने से नहीं झिझके. वह जननेता थे.
जब हम धरना स्थल आ रहे थे, तब बातों-बातों में मैंने उनसे पूछ लिया- ‘आपने पार्टी कब ज्वाॅइन की?’
मुस्कराते हुए उन्होंने याद करते हुए कहा- ‘जब मैं नाबालिग ही था, पार्टी में शामिल हो गया था.’
तथ्य यह था कि उन्हें पार्टी में शामिल करने के लिए पार्टी नियमों में ढील दी गयी थी.
अस्सी के दशक में कॉमरेड भूपेश गुप्ता के अचानक निधन से एक खालीपन आ गया. भूपेश गुप्ता सीपीआइ के बहुत मुखर राज्यसभा सदस्य थे. उनके जाने पर सत्ता और विपक्ष के सदस्यों को भी सदमा पहुंचा था. यही वह समय था, जब 1985 में गुरुदास दासगुप्ता आते हैं, तेजी से संसदीय राजनीति में महारत हासिल करते हैं और जल्द ही पूरी तरह से एक कम्युनिस्ट सांसद बन जाते हैं.
उन्होंने ताबड़तोड़ कई घोटालों को उजागर किया. एक कार्रवाई में उन्होंने कॉरपोरेट द्वारा टैक्स चोरी को उजागर किया और इसके पुरस्कार स्वरूप उन्हें एक करोड़ रुपये मिले, लेकिन ये पैसे कॉमरेड गुरुदास ने अपने पास नहीं रखे, बल्कि पार्टी और जन संगठनों को दे दिये. मुझे याद आता है कि अजय भवन में एक कार्यक्रम के दौरान गुरुदास दासगुप्ता ने कुछ लाख रुपये मृणाल सेन को दिये थे.
ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के महासचिव के तौर पर रहते हुए अपने कार्यकाल में गुरुदास दासगुप्ता के साथी कॉमरेड दबी जबान में उन्हें बेचैन आत्मा (हाइपर एक्टिव) कहा करते थे.
मुझे याद है, एक जिम्मेदार सीपीआइ नेता ने निजी बातचीत में कहा था कि कुछ बड़े उद्योगपति ने गुरुदास दासगुप्ता से निजी खुन्नस पाल ली है और वे दासगुप्ता को संसद से किसी भी कीमत पर बाहर करना चाहते थे. एक कॉमरेड के लिए यह सबसे बड़ा पुरस्कार है कि देश के बड़े पूंजीपति आपको अपना दुश्मन मानता है.

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