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मोबाइल हैकिंग के और भी हैं पहलू

आकार पटेल लेखक एवं स्तंभकार aakar.patel@gmail.com व्हॉट्सएप के द्वारा भारतीयों पर किये गये हैक को समझने के लिए हमें कुछ चीजों पर गौर करना होगा. पहली, व्हॉट्सएप के स्वामी फेसबुक द्वारा इस हैक की दोषी कंपनी को अमेरिका की अदालत में ले जाया गया है. इस इस्राइली कंपनी का नाम ‘एनएसओ ग्रुप’ है, जिसने अपने […]

आकार पटेल
लेखक एवं स्तंभकार
aakar.patel@gmail.com
व्हॉट्सएप के द्वारा भारतीयों पर किये गये हैक को समझने के लिए हमें कुछ चीजों पर गौर करना होगा. पहली, व्हॉट्सएप के स्वामी फेसबुक द्वारा इस हैक की दोषी कंपनी को अमेरिका की अदालत में ले जाया गया है. इस इस्राइली कंपनी का नाम ‘एनएसओ ग्रुप’ है, जिसने अपने प्लेटफॉर्म के उपयोगकर्ताओं को विश्वभर में 1,400 और संभवतः उससे भी अधिक मोबाइल फोनों को मिस्ड कॉल के जरिये हैक करने में समर्थ बनाया. यह घटना इसी वर्ष 29 अप्रैल से लेकर 10 मई के बीच हुई. यहां ध्यान रखने की अहम बात यह है कि एनएसओ ग्रुप की सभी उपयोगकर्ता विभिन्न देशों की सरकारें ही हैं.
यह कंपनी कहती है कि ‘हम सरकारों को सार्वजनिक सुरक्षा कायम रखने में मदद पहुंचाते हैं.’ इसका दावा है कि इसने सरकारी एजेंसियों द्वारा स्थानीय तथा वैश्विक जोखिमों की पहचान तथा उनके निवारण में मदद के लिए सर्वोत्तम प्रौद्योगिकी विकसित की है. इस कंपनी के उत्पाद सरकारी खुफिया एवं कानून- प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा दहशतगर्दी तथा अपराधों के निवारण तथा तहकीकात में मदद करने के उद्देश्य से उन्हें कूटलेखन (एनक्रिप्शन) की चुनौतियों से निबटने में समर्थ बनाते हैं.
‘एनएसओ प्रौद्योगिकी को दूरसंचार एवं खुफिया विशेषज्ञों द्वारा डिजाइन किया जाता है, जो अपने क्षेत्रों की अग्रिम पंक्तियों में स्थित होते हुए पल-पल बदलती साइबर दुनिया से परिचित रहने के प्रति समर्पित हैं.’ दूसरी, भारत में इस हैक के शिकार बने लोग वे हैं, जिन्हें हमारी सरकार राष्ट्रद्रोही की संज्ञा देती है. उनमें भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ्तार लोगों के वकीलों सहित अल्पसंख्यकों तथा आदिवासियों के मुद्दों पर कार्य करनेवाले एक्टिविस्ट शामिल हैं. इनमें से कई व्यक्ति ऐसे हैं, जिन्हें मैं जानता हूं और जिनके साथ मैंने काम किया है.
तीसरी, मोदी सरकार इससे इनकार नहीं करती कि उसने भी उक्त कंपनी का वह प्लेटफॉर्म हासिल किया है और अपने नागरिकों के फोन को हैक करते हुए उन पर खुफियागिरी की है. सूचना प्रौद्योगिकी के केंद्रीय मंत्री के एक बयान में कहा गया कि भारत ने व्हाॅट्सएप से इस सेंधमारी की प्रकृति बताने के साथ ही यह भी पूछा है कि वह भारतीयों की निजता सुरक्षित रखने के लिए क्या कर रहा है.
सरकार के लिए उचित यह होता कि वह इस मामले में शामिल होने से साफ इनकार करती. मगर चूंकि यह मामला अमेरिका की अदालत में है, जहां जजों तक आसानी से पहुंच नहीं बनायी जा सकती, इसलिए यह संभव है कि सरकार अपना यह विकल्प खुला रख रही हो कि वह कितनी सूचना उजागर कर सकती है.
एनएसओ ने यह कहा कि उसके लिए यह बताना संभव नहीं है कि कौन उसके प्लेटफॉर्म का उपयोगकर्ता है और कौन नहीं. चौथी, भारत सरकार सूचना प्रौद्योगिकी से संबद्ध अपनी तहकीकातों में निजी कंपनियों का उपयोग किया करती है.
पिछले वर्ष जब मेरे संगठन पर ‘छापा’ पड़ा था (मैं इस शब्द का इस्तेमाल एक उद्धरण के रूप में इसलिए कर रहा हूं कि हमारे विरुद्ध कोई आरोप अथवा शिकायत न तो कभी थी और न अभी है), तो हमारे सर्वर का क्लोन करने के लिए उसे एक निजी कंपनी से आये दो व्यक्तियों को दिया गया था. इस ‘छापे’ के दौरान मेरा मोबाइल फोन मुझसे ले लिया गया और मुझे उसे अनलॉक कर उन्हें सौंपने के लिए बाध्य किया गया. जब मैंने यह पूछा कि क्या यह कार्रवाई विधिसम्मत है, तो मुझे कोई उत्तर नहीं मिला. जब उसे मुझे वापस दिया गया, तो यह नहीं बताया गया कि उसके साथ क्या किया गया है.
हाल के ‘छापों’ के दौरान भी यही सब हुआ, जिनमें नेटवर्क 18 के संस्थापक राघव बहल की कंपनी भी शामिल है. पांचवीं, अमेरिका के विपरीत, भारत सरकार द्वारा निगरानी किये जाने की प्रक्रिया का कोई न्यायिक पर्यवेक्षण नहीं होता. अमेरिका में टेलीफोन टेप को एक जज द्वारा प्राधिकृत करना जरूरी होता है. भारत में इसकी आवश्यकता नहीं होती. कुछ समय पहले, इंडियन एक्सप्रेस द्वारा सूचना के अधिकार के तहत दायर एक याचिका से यह उजागर हुआ कि केंद्रीय गृह सचिव प्रतिवर्ष 10 हजार यानी प्रतिदिन लगभग 30 लोगों के फोन टेप करने की अनुमति देता है, जिससे यह स्पष्ट है कि वह बगैर उनकी तफसील में गये ही ये सारी अनुमतियां दे रहा है.
एक बार फिर अमेरिका के विपरीत, भारत में एकत्र की गयी सामग्रियों के अप्राधिकृत एवं अवैधानिक प्रकटीकरण हेतु कोई उत्तरदायित्व तय नहीं है. इसके लिए अधिकारियों अथवा मंत्रियों को दंडित नहीं किया जाता. छठी, इतने बड़े पैमाने पर एकत्र की गयी सामग्रियों के बावजूद, इनके नतीजे दोषसिद्धि (कन्विक्शन) तक नहीं पहुंच पाते.
दहशतगर्दी के आरोप पर जो कानून लागू किये जाते हैं, उनमें भी दोषसिद्धि की दर लगभग एक प्रतिशत ही है, 99 प्रतिशत मामलों में सरकार आरोप सिद्ध करने में विफल रहती है या आरोपितों पर गलत आरोपों की बात जाहिर होती है. इस विफलता में गैरकानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम (यूएपीए, जिसके अंतर्गत भीमा-कोरेगांव एक्टिविस्टों को आरोपी बनाया गया) भी शामिल है. सरकार में इस विफलता अथवा दुरुपयोग के लिए कोई भी उत्तरदायित्व नहीं है.
यही वह पृष्ठभूमि है, जिसे इस बात पर विचार करते वक्त हमें जानना चाहिए कि किसी ऐसे निकाय ने एक इस्राइली कंपनी को भारतीय नागरिकों के फोन हैक करने के लिए भुगतान किया, जिसके कार्य को भारत सरकार द्वारा अनुमति नहीं मिली है. साधारणतः, भारत में ऐसे मामले किसी नतीजे तक नहीं पहुंच पाते, क्योंकि मीडिया की रुचि कुछ समय बाद मृत हो जाती है और सरकार को कभी जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता.
कुछ वर्ष पूर्व, मेरे द्वारा संपादित एक समाचार पत्र ने सलमान खान तथा प्रीति जिंटा के बीच टेप की हुई बातचीत प्रकाशित की थी. प्रीति जिंटा मानहानि के आरोप में मुझे अदालत तक ले गयीं, जहां पर यह राज खुला कि मुंबई पुलिस ने सलमान खान के फोन को बगैर अनुमति के टेप किया था. लेकिन, इसके लिए किसी को कोई दंड नहीं मिला और फिर मामले को वहीं रफा-दफा कर दिया गया.
मगर, इस बार अमेरिकियों के फोन भी हैक हुए हैं और उनकी न्यायिक प्रक्रिया में देर-सवेर सच सामने आयेगा ही. जब यह उजागर होगा कि इस हैक के पीछे कौन था, तो हमेशा ही यह कहा जा सकता है कि ‘राष्ट्रद्रोही’ निजता के अधिकार के योग्य नहीं होते और उनके विरुद्ध की गयी कोई भी कार्रवाई, भले ही वह गैरकानूनी हो, बिल्कुल सही है.

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